Friday, February 27, 2009

आडवाणीजी,, मेरा पीछा करना छोड़ दीजिए !

अगर आप 1 घंटे की वेब-सर्फ़िंग में आठ-दस वेबसाइट पर भी गए होंगे तो आडवाणी जी से आपका सामना ज़रूर हुआ होगा। आजकल साहब का जलवा ही कुछ ऐसा है कि आप अगर इंटरनेट पर बैठे हैं तो उनसे बचकर नहीं निकल सकते। कभी वो भारत के मज़बूत, समृद्ध और सुरक्षित होने के सवालिया निशान के जवाब में ख़ुद की तस्वीर के साथ मौजूद हैं तो कहीं हिन्दुस्तान को दुनिया में ऊंचा क़द दिलाने के लिए प्रतिबद्ध नज़र आते हैं। आडवाणी फ़ॉर पीएम...जी हां, उनमें पीएम बनने की बाल सुलभ चंचलता और जोश का मेल आजकल ख़ूब दिखाई देता है। लेकिन मेरी परेशानी ये है कि मैं अब हर साइट पर उन्हें देख-देख के थक गया हूं। इधर मै किसी वेबसाइट पर पहुंचा और उधर आडवाणीजी पूरे बैनर के साथ मुझे बताने लगते हैं कि इस बार मैं भूल जाऊं कि प्रधानमंत्री उन्हें ही बनाना है। आडवाणी जी, मैं आपको भरोसा दिलाता हूं कि अब तक भारत के सभी नेट-नागरिक आपको और आपके संदेश को भरपूर देख चुके हैं इसलिए आप यहां होने वाले ख़र्चे का कहीं और बिना किसी हिचक के सदुपयोग कर सकते हैं।

Monday, February 23, 2009

ये तो लिखा है/ Perhaps It Is Written !


So, would the ceasefire be declared between Slumdog Millionaire(SM) lovers and those who say it sucks...now when the Oscars are all smiling on this rags to riches story of a slumdog. 8 awards out of 10 nominations is no joke. And don't forget that, of those 8 beautiful, coveted trophies 3 are coming home. Or am I too joyous and foolish to imagine of a truce as the awards might actually begin the war of words afresh....there is no dearth of wordmongers who you will be finding spread on all your 2 newspapers and 20 channels. Frothing with anger that the West only recognizes films which portray India in bad light or Hollywood is smitten with poverty porn.

My point is....just ignore the crap. And think how we can get the maximum mileage out of this British film with 3 Oscars won by Indian artists. How is it gonna get us that 'something' which will help us have a bigger share of the Global Film Industry which stands at an abysmally low of less than 4% worldwide, as of now. Amitabh Bachchan school of thought would be infuriated with me when I say that yes, we need a certificate from West in the form of Golden Globe, BAFTA and Oscars if we want to make better films for a global audience. By the way the term 'global audience' for Indian films has largely been restricted to Indian Diaspora and some African and Middle-East nations. India sells 1 billion more tickets worldwide than Hollywood, produces double the films of Hollywood and to bring home the point, consider these facts- Bollywood made $1.75 billion in 2006 which happens to be half of revenues generated by Studio Walt Disney; the year Titanic released, Bollywood's earnings stood at $1.2 bn and Titanic's at a whopping $ 1.9 bn....weren't we comparing Hollywood?! SM has given Indian filmmakers an opportunity which should infuse them with vigor and enthusiasm to churn out products that can appeal to international audiences and thus taking the industry to its rightful position. And there is already some activity happening in projects taking mammoth shapes, big directors reinventing themselves, new barriers being broken by the young filmmakers (Jihad, Wake up Sid, Kaminay, Kites, Dhobi Ghaat, Falling, Ishqian, Delhi Belly, Three Idiots, Gulaal, My Name is Khan, Rang Rasiya, New York, 8*10 Tasveer, Aladin, Siddharth- the Prisoner... the list goes on) 2009 has the caliber of being 'the year' for the industry. Hope that SM gives sleepless nights to the industrywallahs as to why didn’t they think of such a film…it was all out there…Hope that they take their brilliant babies to such platforms and show the world that Danny is no genius. After the success of SM, the world audience has some questions for the industry and it should emerge victorious in the SM fashion proving that: IT IS WRITTEN!!!

(Photo Courtesy: Rajesh Kumar Singh/AP)

(I wrote this post initially for www.newdelhifilmsociety.blogspot.com)

Friday, February 20, 2009

मंदी की अजब सुरीली कहानी

मंदी की ये कहानी कोई आम कहानी नहीं है...हमारे एक अज़ीज़ दोस्त के भाई ने अभी-अभी इंजीनियरिंग की पढ़ाई ख़त्म की है। एक प्रतिष्ठित कंपनी ने उनके भाई समेत कुछ लोगों को नौकरी देने का वादा कर अपॉइन्टमेन्ट लैटर थमा दिया। मंदी के दौर में बच्चों की ख़ुशी की कोई सीमा नहीं...थोड़ा जश्न भी हुआ। और तभी आ गया कहानी में मोड़। मंदी का भूत जब कंपनी की पीठ पर सवार हुआ तो बेचारी ने बच्चों को साफ़ बता दिया कि उन्हें नौकरी नहीं दी जा रही...सारे अपॉइन्टमेन्ट कैंसल किये जा रहे हैं। अब कंपनी बड़ी है तो इतनी टुच्ची हरकत ऐसे ही थोड़ी कर सकती है। उसने कैंसेलेशन के साथ कॉन्सोलेशन भी दिया। कंपनी ने हरेक को एक आईपॉड दे दिया। अजी, नौकरी न सही....आईपॉड सही। आईपॉड में मुकेश के दर्द भरे नग़मे लोड करो और नौकरी ढूंढ़ते रहो- शायद यही फ़लसफ़ा रहा होगा।

Thursday, February 19, 2009

सेबी राजू को पकड़ सकती थी अगर...


आपको एचडीएफ़सी इंश्योरेंस का वो विज्ञापन तो याद ही होगा....एक प्यारी सी बच्ची अपने पिता को एस्ट्रोनॉट की तस्वीर दिखाकर कहती है कि वो बड़े होकर यही बनेगी...लेकिन काम क्या करेगी? पिता का कहना कि वो रॉकेट में बैठकर चंदामामा के पास जा पाएगी और इस पर उस मासूम का जवाब- टिकट राजू मामा लेकर देंगे, राजू 'मामा' के पास बहुत पैसे हैं...। काश सेबी ने पहले इस विज्ञापन पर ध्यान दिया होता तो राजू को रोका जा सकता था...उस बच्ची तक को पता था कि राजू के पास बहुत पैसे हैं ! ! !

Thursday, February 5, 2009

ख़ुशियों का रिटर्न

फ़रवरी शुरु होते ही दफ़्तरों में फ़ॉर्म 12, फ़ॉर्म 16 जैसे शब्द साल भर की गुमनामी के बाद फिर गूंजने लगे हैं। इन्कम टैक्स डेक्लेरेशन का सीज़न है। यार-दोस्त चाय की चुस्कियों के बीच नई पॉलिसी, म्युचुअल फंड, पीपीएफ़ पर चर्चा कर रहे हैं। कहां बचाएं, कितना बचाएं, रेट ऑफ़ रिटर्न क्या है? क्या आप 7200 रुपये ख़र्च करना चाहेंगे ? इस रकम को ख़र्च करके आपको ख़ुशियों का रिटर्न मिलेगा। कैसे ? वर्ल्ड विज़न नाम की एक संस्था है...क़रीब 100 देशों में काम करती है...बच्चों के लिए...बच्चे जिनके लिए ठीक-ठाक खुराक एक सपना है और शिक्षा एक क्रूर मज़ाक़ से ज़्यादा कुछ नहीं। ऐसे किसी एक बच्चे को चुनिए...उसे प्रायोजित करिए यानी उसकी ज़िंदगी की उन ज़िम्मेदारियों को साझा करिए जो उसका परिवार उठाने में अक्षम है। 600 रुपया महीना आपको उस बच्चे के नाम देने होंगे। ये यूं ही कोई अनाम, अंजान बच्चा नहीं होगा। उसकी एक शक्ल, एक नाम, एक पहचान है। आप चाहें तो उसे चिट्ठी लिख सकते हैं...उसके घर जाकर उसे मिल सकते हैं। इस रकम के अलावा उसे कुछ और देना चाहें तो वो भी दे सकते हैं। साल दर साल आप उसकी ज़िंदगी के उस हिस्से को संवारने में मदद कर सकते हैं जहां उसे पढ़ते-बढ़ते देखना आपकी ज़िंदगी का सबसे ख़ूबसूरत एहसास बन जाएगा...(आपकी ज़िंदगी का ? सोचा तो नहीं था कि इतना स्वार्थ भरा कुछ लिख जाएगा।) यक़ीन मानिए ये सरकार और समाज को कोसने से उम्दा काम है।
....वैसे कर में छूट 80जी के तहत मिल जाएगी !

Sunday, February 1, 2009

बाज़ार तुम महान हो !

ये बाज़ार कब मुझे चौंकाने से बाज आएगा। जब लगता है कि अब इसकी चाल थोड़ी-थोड़ी समझने लगा हूं तभी साला ऐसी गुलाटी मारता है कि सारी समझ की ऐसी-तैसी हो जाती है। अब देखिए न...उधर मैंगलौर में पावर के नशे में धुत कुछ लोगों ने लड़कियों को पब से निकाला इधर देश की राजधानी महिलाओं को दारु पिलाने के लिए बिछी जा रही है। नोएडा का मशहूर डिस्को थिक कह रहा है कि मैंगलौर में जो कुछ हुआ उसके विरोध में हम महिलाओं को आदमियों से बेहतर डील देंगे। यानी जमकर दारु पिओ बिना किसी हिच्च...माफ़ कीजिएगा....मेरा मतलब बिना किसी हिचक के। जीके के फ़ेमस नाइट स्पॉट में इस बुधवार की रात होगी- 'Everything free for girls' नाइट। वाह, दिल गार्डन-गार्डन हो गया ये सब जानके। कुछ के मुंह में ये सुन के दारु भी आ रही होगी। वसंत विहार के रेस्ट्रॉं ने साफ़ एलान कर दिया है - 'Girls have a right to party! ये उस ख़ास शाम का नाम है जो रेस्ट्रॉ ने अपनी महिला ग्राहकों के लिए आयोजित की है। अब ये सब पता लगने के बाद अगर कुछ पुरुष सोचने लगें कि काश वो महिला होते तो मैं उन्हें क़तई दोषी नहीं ठहराऊंगा। दारु के लिए कुछ भी करेगा...ख़ुश रहने के लिए पीना ज़रुरी है न...बिन पिए...क्या जिए ! ये सारी चीज़ें बाज़ार से बेहतर कौन समझ सकता है। ये तो उन बेचारों को भी नहीं पता जो इस पूरी घटना की मुख़ालफ़त में झंडा बुलंद किए हुए हैं। पहले फ़्री की दारु पिला-पिला के लत लगा दो...फिर 'ख़ुश रहने के हक़' को अंजाम देने के लिए क़दम ख़ुद ब ख़ुद अड्डों की तरफ़ बढ़ चलेंगे। हे ! चतुर, चालाक, शातिर बाज़ार -तुझे मेरा कोटि कोटि नमन !
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