Sunday, December 20, 2009

हम हैं ख़बरों की दुनिया के नंगे पुरोधा



हां-हां, कहावतें जानते हैं हम भी
हां-हां, रवायतें जानते हैं हम भी
जानते हैं तौर-तरीक़े भी
पर क्या चिपके रहें इन्हीं से हमेशा
होते होंगे पहले हमाम
पर वो हमारा क्या मुक़ाबला करेंगे
हमाम- नाम ही इतना डाउनमार्केट है
अपना तो भैया स्पा है
आधुनिक और सुविधा संपन्न
इसमें डलती हैं नोटों की गड्डियां
और ख़ास सचमारक लोशन
हां, एक बराबरी है हमाम और हमारे स्पा में
हम सब भी नंगे खड़े हैं इसमें

हम हैं ख़बरों की दुनिया के नंगे पुरोधा

अब सुनो हम नंगों का समवेत स्वर
हमारे अख़बारों और चैनलों की
कुछ ख़बरें काल्पनिक हैं
इनका सच्चाई से कोई भी वास्ता
महज़ संयोग है

हमेशा हम पूछते हैं न
ऐसे हालात में कोई हमसे भी तो पूछे
'कैसा लग रहा है' हमें?
सच सुनेंगे
बहुत बुरा लग रहा है
शर्म भी आती है
दरअस्ल ये सब बाज़ार का दबाव करवा रहा है
ग़ालिब से माफ़ी के साथ कहें तो
"हमें तो बाज़ार ने बेईमान बना दिया
वर्ना अख़बार तो हम भी थे सच्चाई वाले"

क्या सोचने लगे
मान ली न हमारी मजबूरी
रहम भी आ रहा होगा हम पर
थोड़ा-थोड़ा

हा हा हा हा हा हा
फंस गए न आप भी
हम ठहरे शब्दों के जादूगर
बरसों से बेच रहे हैं इसी तरह
करतूतों को अपनी
मजबूरी के मज़बूत खोल में लपेटकर

*ये कविता आउटलुक-अंग्रेज़ी के ताज़ा अंक ( For Sale- Journalism) से प्रेरित है।

Tuesday, December 15, 2009

'पा' से प्रोमोशन

'पा' और '3 इडियट्स'... दो ऐसी फ़िल्में जो फ़िल्म प्रोमोशन का व्याकरण नए सिरे से लिख रही हैं। दो ऐसी फ़िल्में जिनके पास बड़े स्टार का तड़का है, बड़े निर्देशक की कमान है लेकिन फिर भी जिन्होंने मानो ठान रखा है कि लोग अगर इन्हें बेहतरीन फ़िल्म की तरह याद रखेंगे तो जुदा प्रोमोशन के लिए भी।
जब रॉकेट सिंह के विषय के बारे में सुना था तो लगा कि फ़िल्म का प्रोमोशन भी कमाल का होगा लेकिन मैं ग़लत निकला। सेल्समैनशिप के सबक तो 'पा' और '3 इडियट्स' सिखा रही हैं।

दरअसल 'पा' का प्रोमोशन कहीं न कहीं उस असुरक्षा से भी उपजा है जहां जोख़िम उठाने की ताक़त कम हो जाती है। एबी कॉर्प, अपने नए अवतार में जोख़िम उठाने के मूड में क़तई नहीं है। सो, एक कम बजट की अच्छी कहानी को बेचने के लिए जो करना पड़े वो तैयार है। एक 67 साल के कलाकार को, जिसके सीने पे सम्मान के तमाम तमगे जगमग हैं, टीवी स्क्रीन पर हर थोड़ी देर में ऑरो की आवाज़ में बात करते हुए कोई गुरेज़ नहीं है। और सच पूछिए तो हो भी क्यूं। अपना सामान बेचने में शर्म कैसी? अमिताभ बच्चन आपको चैनल-चैनल, उस स्पेशल डेंचर के साथ ऑरो बने मिल जाएंगे। अब तो ऑरो कमेंट्री भी कर चुका है। यानी अख़बार से लेकर टीवी, टीवी से वेब और वेब से आपके आइडिया मोबाइल तक, वो हर जगह मौजूद है।
ज़रा दिमाग़ पर ज़ोर डालिए, बताइये इससे पहले बच्चन साहब इस तरह प्रचार करते नज़र आए थे कभी?

अगर 'पा' का बोझ अमिताभ बच्चन ने अपने कंधों पे उठा ऱखा है तो '3 इडियट्स' के लिए मिस्टर परफ़ेक्शनिस्ट, आमिर ख़ान, अपने परफ़ेक्ट मेकओवर के साथ शहर दर शहर घूम रहे हैं। आपको याद होगा, 'गजनी' के प्रचार के दौरान आमिर का लोगों के बालों को वही स्टाइल देना। लेकिन इस बार वो अलग-अलग वेश में देश भ्रमण पर हैं। यानी वो केश की बात थी, ये वेश की है ! ख़बरिया चैनलों को बाक़ायदा इस 'भ्रमण' का वीडियो उपलब्ध कराया जाता है और हमारे चैनल इसे एक आज्ञा अथवा आदेश मानकर उसे पूरा करते हैं। आधे घंटे का अच्छा विजुअल मसाला जो है। चैनल को दर्शक मिलते हैं और आमिर की फ़िल्म को मुफ़्त का प्रचार। इसके लिए आमिर अपने चहेते क्रिकेटर और दोस्त सचिन को भी साथ ले आए हैं। पहला क्लू तो सचिन ने ही दिया था न।
इन दोनों फ़िल्म की प्रचार रणनीति ने कम से कम ये ज़रूर तय कर दिया है कि 2010 में अपनी फ़िल्म बेचने वालों को जमकर दिमाग़ी कसरत करनी पड़ेगी। तब तक, 2009 के 'सेल्समैन औफ़ द ईयर' सम्मान के हक़दार रॉकेट सिंह नहीं बल्कि 'पा' और '3 इडियट्स' हैं।

Tuesday, December 1, 2009

एक किताब और एक फ़िल्म के बहाने इंसानी जज़्बात के हज़ार रंग


इंसानी जज़्बात तमाम चीज़ों से बेतरह प्रभावित होते रहते हैं। किताब के पन्ने और सिनेमा के पर्दे पर न जाने कितने एहसास, कितनी बार ख़ूब बारीकी से छिटकाए गए हैं।
लेकिन आज मैं आपसे उस किताब और फ़िल्म का ज़िक्र कर रहा हूं जिसने इन जज़्बातों को कुछ इस क़दर छुआ है कि वो भुलाए नहीं भूलते।
पहले किताब का ज़िक्र कर लेते हैं। किताब का नाम है- वाइज़ एण्ड अदरवाइज़ (Wise and Otherwise)। सुधा मूर्ति ने लिखा है इसे...नहीं, लिखा कहना ठीक नहीं होगा, ये किताब लिखी नहीं बुनी गई है हमारी इंसानियत और शैतानियत के तमाम धागों से। सुधा मूर्ति कई सालों से इंफ़ोसिस फ़ाउंडेशन चला रही हैं। इस दौरान हर तरह के लोगों से उनकी मुलाक़ात होती रहती है। निहायत ईमानदार,अच्छे लोग और बेहद ओछे भी यानी इंसानी जज़्बात का हर रंग क़रीब से देखने का मौक़ा मिला है उन्हें। और जब एक ऐसा व्यक्ति ये सब महसूस कर रहा हो जिसके अंदर एक लेखक भी रहता हो तो ज़ाहिर है वो दुनिया को इसे बताना भी चाहेगा। यही किया है सुधा मूर्ति ने इस किताब के ज़रिए। 51 ऐसे तजुर्बे जिन्हें पढ़ने के दौरान आप एक आत्म-परीक्षण के मोड में चले जाते हैं कि मैं इन सारे लोगों के बीच कहां खड़ा हूं। ये किताब आजकल नित नई आती तमाम 'मोटिवेशनल' किताबों पर भारी है क्यूंकि इसके अनुभव इसी ज़मीन से आम इंसानों से लिए गए हैं।
अब करते हैं फ़िल्म की बात। आसिफ़ कपाड़िया ब्रिटेन में बसे फ़िल्ममेकर हैं। वही जिन्होंने कई साल पहले 'वॉरियर' बनाई थी, इरफ़ान ख़ान को लेकर। जिस फ़िल्म का मैं ज़िक्र कर रहा हूं, वो बेहद ख़ूबसूरत, टुंड्रा इलाके में फ़िल्माई गई 'फ़ार नॉर्थ'
(Far North) है। माफ़ कीजिएगा, जिस तरह मैंने किताब का ज़िक्र किया, उस तरह इस फ़िल्म का नहीं कर पाऊंगा क्यूंकि जिस जज़्बात को ये फ़िल्म उभारती है, उसका ज़रा भी ज़िक्र करते ही फ़िल्म का मज़ा ख़राब हो जाएगा और हो सकता उसे देखते हुए आप समझ जाएं कि आगे क्या होगा।
हां, मैं इतना ज़रूर कह सकता हूं कि अगर आप इसे रात को देखेंगे तो नींद आने में थोड़ी तकलीफ़ ज़रूर होगी। ये फ़िल्म आपको झकझोर देती है क्यूंकि जो दिखाया गया है वो आप कभी सपने में भी नहीं सोच सकते थे।
हालांकि, मेरा मानना है कि हालात हमारे एहसासों को किस तरह बदलेंगे, आप कभी गारंटी नहीं ले सकते।
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