Saturday, January 5, 2008

आवाज़ बुलंद हो



उठाया है हमने जो पहला क़दम
किया है ख़ुद से वादा ली है क़सम
कि कोई चीख़ कोई आह गुम न हो
आंख डरी न हो चेहरा सहमा न हो
ज़ुबां ख़ामोश न हो सवाल थमा न हो
सच आज़ाद हो उन्मुक्त हो ज़िन्दा हो
जंजीरों में छटपटाता झूठ ख़ुद पर शर्मिन्दा हो
क्यूं न हम एक मशाल बनें
अंधेरे को चीरती लौ विशाल बनें
क्यूं न हम लोगों का विश्वास बनें
हर मुश्किल में उनकी आस बनें
इस सबके बीच ख़्याल बस इतना रहे
ये रास्ता आसान नहीं है
पर नामुमकिन भी तो नहीं
तो साथियों हौसला मंद न हो
आवाज़ सदा बुलंद हों


ये कविता तब लिखी गई थी जब पत्रकारिता की दुनिया में क़दम रखा ही था और तस्वीर के सारे पहलुओं से वाक़िफ़ नहीं था। इस बीच नदी में काफ़ी पानी बह चुका है और कई नई चीज़ों से दो चार भी हुआ हूं लेकिन ख़ुशी इस बात की है कि इन पंक्तियों पर भरोसा पहले से मज़बूत ही हुआ है।
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