Monday, May 25, 2009

प्लेट भर प्यार

मैं अक्सर घर देर से लौटता था
घर में मिलती थीं दो प्लेटें
एक में खाना
दूसरी में संवाद
दोनों एकदम गर्म

मैं अक्सर घर देर से लौटता हूं
घर में मिलती हैं दो प्लेटें
एक में खाना
दूसरी प्लेट से वो हर दोपहर ढका जाता है

Saturday, May 23, 2009

पहली उड़ान का जादू


एक लंबे इंतज़ार के बाद आख़िर मैं भी बादलों के पार हो ही आया। होश संभालने के बाद करीब 20 साल से ज़्यादा का लंबा इंतज़ार। लेकिन इसको इतना भर कहना ठीक नहीं होगा। दरअसल दिल्ली से पुणे तक का हवाई सफ़र यादों का वो सफ़र भी था जिसे मैंने होठों पर तैरती हल्की मुस्कान के साथ तय किया। मुझे याद है बचपन के वो दिन जब प्लेन गुज़रते ही आंखें आसमान की तरफ़ ख़ुद ब ख़ुद उठ जाती थीं...ऊपर की तरफ़ एक उंगली उठती थी...दोस्तों की चंद उंगलियों के साथ और फिर एक ज़ोरदार आवाज़- हवाई जहाज़sss । फिर जहाज़ के ओझल होने तक नज़रें उसका पीछा करती थीं। अरे हां, एयरहोस्टेस को लेकर भी तो जाने कितने ख़्यालात बुने जाते थे। क्या वो वाकई हूर की परी होती हैं? वगैरह, वगैरह। उन्हें देख कर लगा जैसे मैडम तुसाद से कुछ बेहतरीन दिखने वाले महिला पुतलों में बस जान फूंक दी गई हो...काफ़ी मैकेनिकल। शायद उनकी ट्रेनिंग होती होगी ऐसे ही...दो इंच मुस्कान फैलाएं...ध्यान रखें...मुस्कान छलकने न पाए। तब भी लगता था..नहीं यार...इसमें बैठना ज़रुर है। पढ़ा था...राइट बंधुओं ने कितनी मुश्किल से इसे बनाया। जब उनके पिता ने एक पादरी को बताया कि मेरे बेटे एक उड़ने वाली मशीन पर काम कर रहे हैं तो पादरी ने कहा- उनसे कहिए, ये सब छोड़ें, उड़ना देवदूतों का काम है, इंसान का नहीं। लेकिन आज राइट बंधुओं के लिए नतमस्तक हूं। उन्होंने उड़ान भरी...पहले सपनों की और फिर हक़ीक़त की। अब जब मैं भी उड़ आया हूं तो एक नया अनुभव साथ है। पूरे शहर की धड़कन सुननी हो तो इस जहाज़ से बेहतर साधन कोई दूसरा नहीं। स्वर्ग तो पता नहीं कैसा होता होगा लेकिन दूर तक बिखरे बादलों के कालीन को देखना वाकई एक अलग दुनिया के दरवाज़े खुलने जैसा था। मानो किसी की डलिया से कती हुई कपास उड़ कर बिखर गई हो। दूर कहीं सूरज कभी जलता, उबलता तो कभी थकता, छुपता दिखाई दे जाता था। जिंदगी में न जाने कितनी उड़ानें होती रहेंगी, लेकिन उनमें न तो इस पहली उड़ान की रूमानियत होगी और न ही वो जोश।

Monday, May 18, 2009

जब ख़ून पानी से सस्ता हो गया !



चुनावी नतीजों की धांयधांय के बीच ये ख़बर शायद ही किसी ड्रॉइंग रूम में बातचीत का बहाना बने लेकिन यक़ीन मानिए लोकतंत्र के सबसे बड़े मेले से ये ख़बर पूरी तरह जुड़ी हुई है। भोपाल में तीन लोगों की- मां-बाप और उनके बच्चे की सरेआम चाकू मारकर हत्या कर दी गई। आप कहेंगे, इसमें क्या हुआ, बर्बर होते समाज में ये तो कोई बड़ी बात नहीं हुई। वजह सुनने के बात शायद आपको सवाल करने की ज़हमत नहीं उठानी पड़ेगी। इन तीन बदनसीबों का क़सूर सिर्फ़ इतना था कि वो जल बोर्ड की पाइपलाइन से पानी चुरा रहे थे। गंभीर जल संकट से जूझते मध्य प्रदेश के इस हिस्से में कुछ लोगों को ये बर्दाश्त नही हुआ। क्यूंकि उन्हें भी चाहिए था- अपने हिस्से का पानी। सो पानी के चक्कर में तीन लोगों का ख़ून पानी बनकर बह गया। लेकिन जो चीज़ सबसे ज़्यादा डरावनी है वो है बाद की तस्वीर। मौजूद लोगों ने तीनों मृतकों को ज़मीन पर तड़पता छोड़ जल्द से जल्द पानी भरना बेहतर समझा। घटना के एक घंटे बाद ही पुलिस ने आकर तीनों शव उठाए।

प्रदेश में बीजेपी की सरकार है और केन्द्र में यूपीए की। दो ऐसी सरकारें जो विकास और ट्रबलशूटिंग स्किल्स के दम पर दो बार चुनी गईं। लेकिन जब ख़ून पानी से सस्ता होने लगे तो हालात बदलने के तरीक़े सरकारों को ही तलाशने होंगे। ये सच है कि प्रदेश बेहतर वर्षा से वंचित रहा है लेकिन ये ज़िम्मेदारी से मुंह मोड़ने का बहाना क़तई नहीं हो सकता। ख़ास तौर पर तब जब हालात इस क़दर ख़राब हो जाएं। फिर लोकतंत्र की जीत और विकास के नाम पर लौटती सरकारों पर कैसे भरोसा करें ?

Saturday, May 9, 2009

मेरे तो नीतीश कुमार दूसरो न कोय !


मेरे प्यारे नीतीश...मेरे भोले नीतीश...मेरी सत्ता की नैया बीच भंवर में गुड़ गुड़ गोते खाए, नैया पार लगा दे। इस समय राजनीतिक दल 'पड़ोसन' के गीत को थोड़े ट्विस्ट के साथ पेश करते ही नज़र आ रहे हैं। नीतीश ने जिस तरह बिहार की तस्वीर बदलने में क़ामयाबी पाई है वो तो क़ाबिले तारीफ़ है लेकिन जब ये तारीफ़ कोई ऐसा कर दे जिससे उम्मीद न हो तो राजनीतिक भूचाल उठना लाज़िमी है। कहानी शुरु हुई दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के कयास से कि नीतीश कांग्रेस के साथ आ सकते हैं। फिर क्या था नीतीश को रिझाने का सिलसिला शुरु हो गया। इस रिझाऊ-वेला में राहुल गांधी, बुद्धदेब भट्टाचार्य और प्रकाश करात भी उतर आए। अब बीजेपी को ये सब कहां बर्दाश्त था कि जिस दोस्ती को हमने इतने साल सींचा उसे कोई दूसरा हमारी आंखों के सामने से उड़ा के ले जाए सो उसका मन-मंदिर भी अशांत हो गया। पार्टी के बड़े नेताओं को कहना पड़ा कि नहीं भाई...नीतीश हमारे साथ ही हैं। जब ख़ुद नीतीश ने कह दिया कि वो एनडीए के साथ हैं तो बीजेपी की बांछें खिल गईं। बोली...हम न कहते थे, नीतिश से दोस्ती कोई झूठी थोड़े ही है। मन ही मन ये भी कहते होंगे कि जाएगा कहां..हमसे रूठेगा तो बिहार में सरकार कांग्रेस क्या खाके बचाएगी।

बिहार की 40 लोकसभा सीटों में अंदेशा है कि नीतीश की क़ाबिलियत 20-22 सीट झटक सकती है। ऐसे में हर किसी की चाहत यही है कि नीतीश बस किसी तरह उनको तवज्जो दे दें। लालू-पासवान की पतली हालत कांग्रेस की दूसरी बड़ी चिंता है। मायावती, नायडू, देवेगौड़ा, मुलायम जैसे नेताओं की प्रधानमंत्री पद की चाहत के बीच नीतीश ही वो खेवनहार नज़र आते हैं जो ज़्यादा महंगे पड़े बिना ही दलों के काम आ सकते हैं। सो लगे रहो...तब तक नीतीश भी तारीफ़ों की बाढ़ के बीच शायद कोई किनारा तलाश लें।
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