सोचा तो ये था कि ब्लॉग पर 8 महीने के बाद किसी उम्मीद बंधाती और सकारात्मक पोस्ट के साथ ही पुनर्जन्म होगा। लेकिन करें क्या वो जावेद साहब ने लिखा है न...ग़म नहीं लिखूं क्या मैं ग़म को जश्न लिखूं क्या मातम को,जो देखे हैं मैने जनाज़े क्या उनको बारात लिखूं। सो आज सुबह अख़बार का मुखपृष्ठ देखकर रहा नहीं गया। लगा कि ब्लॉग के ज़रिए ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक ये बात पहुंचनी चाहिए। लगा कि हम विकास का कितना भी ढिंढोरा पीट लें, सोच में आए बदलाव पर इतरा लें पर असल बदलाव से अब भी कोसों दूर हैं। ये दु:ख इस बात से और भी बढ़ जाता है कि जिनके कंधों पर समाज को दिशा देने की ज़िम्मेदारी है या कहें जो ऐसा करने का दम भरते हैं वही सोच के छिछले स्तर पर उतरे हुए हैं। अब ज़रा मुद्दे पर आते हैं। हुआ यूं कि डीपीएस कैम्पस में एक छात्र की स्वीमिंग पूल में डूबने से मौत हो गई। कुछ दिन पहले ही पुष्पांजलि की मौत के बाद आई ये ख़बर बडी बन गई थी सो ठीक ही मुखपृष्ठ पर ली गई। लेकिन ये क्या, दूसरे पैराग्राफ़ की शुरुआत दिमाग़ को झकझोर गई। किसी बड़े और प्रतिष्ठित अख़बार में तो मैने कम से कम ये उम्मीद नहीं की थी। अब पढ़िए क्या है उस दूसरे पैराग्राफ़ में-
नादिर टी-140, सराय काले खां निवासी मोहम्मद रईस का बेटा था। तीन बहनों के बीच नादिर न केवल रईस के घर का, बल्कि पूरे खानदान का इकलौता चिराग था। रईस के दोनों भाइयों के घर भी बेटियां ही हैं। (नवभारत टाइम्स- 30.08.08)
सिर्फ़ दो वाक्यों ने वो ज़ाहिर कर दिया जो अब तक शायद कहीं भीतर रहता तो होगा लेकिन अख़बार में ये सब न लिख पाने की बंदिश के चलते सामने नहीं आ सका था। संपादक का ध्यान या तो इस पर गया नहीं और अगर गया तो शायद उसे कुछ खटका नहीं। जो भी हुआ, बुरा हुआ।
ये कोई साधारण ग़लती या चूक होती तो शायद नज़रअंदाज़ किया जा सकता था लेकिन ये तो सोच समझ कर लिखी गई वो इबारत थी जो दशकों की तरक्क़ी को...पत्रकारिता की भूमिका को मज़ाक बना कर पेश करती है।फ़िलहाल हम धर्मगत विश्लेषण में न जाएं तो बेहतर है क्यूंकि तब इस ग़लती के मायने कहीं बहुत अलग जान पड़ेंगे और ख़तरनाक भी।
ख़ैर, औरों का तो पता नहीं लेकिन मुझे लगता है कि अख़बार को इसके लिए माफ़ी मांगनी चाहिए। माफ़ी इस एहसास के साथ कि हमेशा इस बात का ख़्याल रखा जाएगा कि ग़लती से भी कुछ ऐसा न छप जाए जो बदलते समाज को फिर से सोच के उसी ढर्रे पर वापस लाकर पटक दे।