Sunday, December 20, 2009

हम हैं ख़बरों की दुनिया के नंगे पुरोधा



हां-हां, कहावतें जानते हैं हम भी
हां-हां, रवायतें जानते हैं हम भी
जानते हैं तौर-तरीक़े भी
पर क्या चिपके रहें इन्हीं से हमेशा
होते होंगे पहले हमाम
पर वो हमारा क्या मुक़ाबला करेंगे
हमाम- नाम ही इतना डाउनमार्केट है
अपना तो भैया स्पा है
आधुनिक और सुविधा संपन्न
इसमें डलती हैं नोटों की गड्डियां
और ख़ास सचमारक लोशन
हां, एक बराबरी है हमाम और हमारे स्पा में
हम सब भी नंगे खड़े हैं इसमें

हम हैं ख़बरों की दुनिया के नंगे पुरोधा

अब सुनो हम नंगों का समवेत स्वर
हमारे अख़बारों और चैनलों की
कुछ ख़बरें काल्पनिक हैं
इनका सच्चाई से कोई भी वास्ता
महज़ संयोग है

हमेशा हम पूछते हैं न
ऐसे हालात में कोई हमसे भी तो पूछे
'कैसा लग रहा है' हमें?
सच सुनेंगे
बहुत बुरा लग रहा है
शर्म भी आती है
दरअस्ल ये सब बाज़ार का दबाव करवा रहा है
ग़ालिब से माफ़ी के साथ कहें तो
"हमें तो बाज़ार ने बेईमान बना दिया
वर्ना अख़बार तो हम भी थे सच्चाई वाले"

क्या सोचने लगे
मान ली न हमारी मजबूरी
रहम भी आ रहा होगा हम पर
थोड़ा-थोड़ा

हा हा हा हा हा हा
फंस गए न आप भी
हम ठहरे शब्दों के जादूगर
बरसों से बेच रहे हैं इसी तरह
करतूतों को अपनी
मजबूरी के मज़बूत खोल में लपेटकर

*ये कविता आउटलुक-अंग्रेज़ी के ताज़ा अंक ( For Sale- Journalism) से प्रेरित है।

Tuesday, December 15, 2009

'पा' से प्रोमोशन

'पा' और '3 इडियट्स'... दो ऐसी फ़िल्में जो फ़िल्म प्रोमोशन का व्याकरण नए सिरे से लिख रही हैं। दो ऐसी फ़िल्में जिनके पास बड़े स्टार का तड़का है, बड़े निर्देशक की कमान है लेकिन फिर भी जिन्होंने मानो ठान रखा है कि लोग अगर इन्हें बेहतरीन फ़िल्म की तरह याद रखेंगे तो जुदा प्रोमोशन के लिए भी।
जब रॉकेट सिंह के विषय के बारे में सुना था तो लगा कि फ़िल्म का प्रोमोशन भी कमाल का होगा लेकिन मैं ग़लत निकला। सेल्समैनशिप के सबक तो 'पा' और '3 इडियट्स' सिखा रही हैं।

दरअसल 'पा' का प्रोमोशन कहीं न कहीं उस असुरक्षा से भी उपजा है जहां जोख़िम उठाने की ताक़त कम हो जाती है। एबी कॉर्प, अपने नए अवतार में जोख़िम उठाने के मूड में क़तई नहीं है। सो, एक कम बजट की अच्छी कहानी को बेचने के लिए जो करना पड़े वो तैयार है। एक 67 साल के कलाकार को, जिसके सीने पे सम्मान के तमाम तमगे जगमग हैं, टीवी स्क्रीन पर हर थोड़ी देर में ऑरो की आवाज़ में बात करते हुए कोई गुरेज़ नहीं है। और सच पूछिए तो हो भी क्यूं। अपना सामान बेचने में शर्म कैसी? अमिताभ बच्चन आपको चैनल-चैनल, उस स्पेशल डेंचर के साथ ऑरो बने मिल जाएंगे। अब तो ऑरो कमेंट्री भी कर चुका है। यानी अख़बार से लेकर टीवी, टीवी से वेब और वेब से आपके आइडिया मोबाइल तक, वो हर जगह मौजूद है।
ज़रा दिमाग़ पर ज़ोर डालिए, बताइये इससे पहले बच्चन साहब इस तरह प्रचार करते नज़र आए थे कभी?

अगर 'पा' का बोझ अमिताभ बच्चन ने अपने कंधों पे उठा ऱखा है तो '3 इडियट्स' के लिए मिस्टर परफ़ेक्शनिस्ट, आमिर ख़ान, अपने परफ़ेक्ट मेकओवर के साथ शहर दर शहर घूम रहे हैं। आपको याद होगा, 'गजनी' के प्रचार के दौरान आमिर का लोगों के बालों को वही स्टाइल देना। लेकिन इस बार वो अलग-अलग वेश में देश भ्रमण पर हैं। यानी वो केश की बात थी, ये वेश की है ! ख़बरिया चैनलों को बाक़ायदा इस 'भ्रमण' का वीडियो उपलब्ध कराया जाता है और हमारे चैनल इसे एक आज्ञा अथवा आदेश मानकर उसे पूरा करते हैं। आधे घंटे का अच्छा विजुअल मसाला जो है। चैनल को दर्शक मिलते हैं और आमिर की फ़िल्म को मुफ़्त का प्रचार। इसके लिए आमिर अपने चहेते क्रिकेटर और दोस्त सचिन को भी साथ ले आए हैं। पहला क्लू तो सचिन ने ही दिया था न।
इन दोनों फ़िल्म की प्रचार रणनीति ने कम से कम ये ज़रूर तय कर दिया है कि 2010 में अपनी फ़िल्म बेचने वालों को जमकर दिमाग़ी कसरत करनी पड़ेगी। तब तक, 2009 के 'सेल्समैन औफ़ द ईयर' सम्मान के हक़दार रॉकेट सिंह नहीं बल्कि 'पा' और '3 इडियट्स' हैं।

Tuesday, December 1, 2009

एक किताब और एक फ़िल्म के बहाने इंसानी जज़्बात के हज़ार रंग


इंसानी जज़्बात तमाम चीज़ों से बेतरह प्रभावित होते रहते हैं। किताब के पन्ने और सिनेमा के पर्दे पर न जाने कितने एहसास, कितनी बार ख़ूब बारीकी से छिटकाए गए हैं।
लेकिन आज मैं आपसे उस किताब और फ़िल्म का ज़िक्र कर रहा हूं जिसने इन जज़्बातों को कुछ इस क़दर छुआ है कि वो भुलाए नहीं भूलते।
पहले किताब का ज़िक्र कर लेते हैं। किताब का नाम है- वाइज़ एण्ड अदरवाइज़ (Wise and Otherwise)। सुधा मूर्ति ने लिखा है इसे...नहीं, लिखा कहना ठीक नहीं होगा, ये किताब लिखी नहीं बुनी गई है हमारी इंसानियत और शैतानियत के तमाम धागों से। सुधा मूर्ति कई सालों से इंफ़ोसिस फ़ाउंडेशन चला रही हैं। इस दौरान हर तरह के लोगों से उनकी मुलाक़ात होती रहती है। निहायत ईमानदार,अच्छे लोग और बेहद ओछे भी यानी इंसानी जज़्बात का हर रंग क़रीब से देखने का मौक़ा मिला है उन्हें। और जब एक ऐसा व्यक्ति ये सब महसूस कर रहा हो जिसके अंदर एक लेखक भी रहता हो तो ज़ाहिर है वो दुनिया को इसे बताना भी चाहेगा। यही किया है सुधा मूर्ति ने इस किताब के ज़रिए। 51 ऐसे तजुर्बे जिन्हें पढ़ने के दौरान आप एक आत्म-परीक्षण के मोड में चले जाते हैं कि मैं इन सारे लोगों के बीच कहां खड़ा हूं। ये किताब आजकल नित नई आती तमाम 'मोटिवेशनल' किताबों पर भारी है क्यूंकि इसके अनुभव इसी ज़मीन से आम इंसानों से लिए गए हैं।
अब करते हैं फ़िल्म की बात। आसिफ़ कपाड़िया ब्रिटेन में बसे फ़िल्ममेकर हैं। वही जिन्होंने कई साल पहले 'वॉरियर' बनाई थी, इरफ़ान ख़ान को लेकर। जिस फ़िल्म का मैं ज़िक्र कर रहा हूं, वो बेहद ख़ूबसूरत, टुंड्रा इलाके में फ़िल्माई गई 'फ़ार नॉर्थ'
(Far North) है। माफ़ कीजिएगा, जिस तरह मैंने किताब का ज़िक्र किया, उस तरह इस फ़िल्म का नहीं कर पाऊंगा क्यूंकि जिस जज़्बात को ये फ़िल्म उभारती है, उसका ज़रा भी ज़िक्र करते ही फ़िल्म का मज़ा ख़राब हो जाएगा और हो सकता उसे देखते हुए आप समझ जाएं कि आगे क्या होगा।
हां, मैं इतना ज़रूर कह सकता हूं कि अगर आप इसे रात को देखेंगे तो नींद आने में थोड़ी तकलीफ़ ज़रूर होगी। ये फ़िल्म आपको झकझोर देती है क्यूंकि जो दिखाया गया है वो आप कभी सपने में भी नहीं सोच सकते थे।
हालांकि, मेरा मानना है कि हालात हमारे एहसासों को किस तरह बदलेंगे, आप कभी गारंटी नहीं ले सकते।

Tuesday, November 24, 2009

आतंकवाद तो फ़ायदे का सौदा निकला !

आपने लियोपॉल्ड कैफ़े का नाम तो सुना होगा। अपने देश में त्रासदियां ही जगहों को जोड़ती हैं। जब मुंबई डूबने लगता है तो लोअर परेल, घाटकोपर जैसे इलाक़ों के नाम पूरे देश को पता लग जाते हैं। पश्चिम बंगाल और झारखंड की जगहों को नक्सलवाद ने जनवाया।
हां, तो मैं बात कर रहा था, लियोपॉल्ड़ कैफ़े की...26/11 के हमले का गवाह लियोपॉल्ड कैफ़े। जहां ख़ून के छींटे सबसे पहले पड़े।
लियोपॉल्ड, ख़ून के इन छींटों का सौदा कर रहा है।
वैसे तो अब तक की ज़िंदगी ने बंदे को हर तरह के झटकों के लिए तैयार कर दिया है पर ये झटका दिल पर थोड़ा भारी गुज़रा। दरअसल, जो गोलीबारी यहां हुई थी उसके निशानों को इसकी दीवारों और शीशों पर सुरक्षित रखा गया। यहां तक तो ठीक है। लेकिन अब, कैफ़े ने कॉफ़ी मग और टी-शर्ट बेचना भी शुरु कर दिया है। मग के लिए आपको देने होंगे 300 रुपये, जिस पर 'गोली के उस निशान' की तस्वीर होगी- नाम रखा है- बुलेट प्रूफ़ मुंबई । टी-शर्ट की क़ीमत रखी गई है 400 रुपये। और हां, अब तक 3000 मग बिक भी चुके हैं। एक नया फ़्लोर बन गया है, ग्राहक जो बढ़ गए हैं। यानी, कुल मिलाकर लियोपॉल्ड के लिए हमला फ़ायदे का सौदा रहा।

इस 'कारोबार' से मुझे शायद ज़रा भी तकलीफ़ नहीं हुई होती, अगर मुझे ये पता लगता कि इन कॉफ़ी मग्स या टी-शर्ट्स से होने वाली कमाई को हादसे के शिकार हुए परिवारों को दिया जाएगा।
लेकिन अफ़सोस, ये तो एक शातिर 'बिज़नेसमैन' का बेहतरीन बिज़नेस मूव निकला।

(चित्र सौजन्य: ओपन)
26/11- शहर के सीने में भी दिल धड़कता है

Monday, November 23, 2009

26/11- शहर के सीने में भी दिल धड़कता है


मैं डरा हुआ हूं, सहमा हूं
मैं ख़ामोश हूं, नाराज़ हूं
मैं वो शहर हूं, जिसमें
हाड़-मांस के इंसान रहते हैं

मैं कभी अजमेर हो जाता हूं
कभी जयपुर, कभी दिल्ली
तो कभी मुंबई
मेरे रिसते ज़ख़्मों को ढंकने के
नायाब इंतज़ाम ढूंढ़े हैं सबने
जब मैं दिल्ली होता हूं तो
वो दिल्ली की दिलेरी हो जाती है
जो कभी मुंबई हुआ तो
मुंबई की स्पिरिट

मेरे ज़ख़्म हरे रहते हैं
उनका इलाज नहीं करता कोई
बस, बे-होशी के कुछ इंजेक्शन
दिये जाते हैं हर बार

और मैं फिर तैयार हो जाता हूं
अगला हमला झेलने के लिए

एक बरस हुआ, जब मैं मुंबई था
मैं एक शहर हूं
मेरी ज़िम्मेदारी है
यहां रहने वालों की हिफ़ाज़त
इस एक साल में जो कुछ बदला
उससे मैं मुतमईन नहीं हूं
हां, ग़मज़दा ज़रूर हूं

अपने बाशिंदो से मैं
ये वादा करना चाहता हूं कि
वो अब महफ़ूज़ रहेंगे
क़त्लो-ग़ारत का कोई मंज़र
उन्हें छू तक नहीं सकेगा
उनके बच्चे यतीम नहीं होंगे
किसी मां के आंसू निकलेंगे
तो अपने बच्चे का
पहला क़दम उठता देखने की ख़ुशी से
उसकी आख़िरी चीख़ सुनने के बाद नहीं
किसी बाप को अपने बेटे को कांधा नहीं देना होगा
उस कलाई पर राखी हर साल सजेगी
ये सब कहना चाहता हूं मैं
अपने बच्चों से, अपने बाशिंदों से

पर कहूं कैसे
जानता हूं ये सच नहीं है
उन्हें ख़ुश देखने के लिए मैं झूठ बोल भी दूं
लेकिन फिर सोचता हूं कि
जब सच बेपर्दा होगा
तो उनका
अपने शहर से भरोसा उठ जाएगा

मैं ख़ुद नहीं समझ पा रहा
मेरी चुप्पी मेरी मजबूरी है
या मेरी कमज़ोर याद्दाश्त का नतीजा
ये जो कुछ है
है बहुत डरावनी

Friday, November 13, 2009

ई साला, मधु कोड़ा को दोषी कौन बताया !


मधु कोड़ा पर जब हर किसी के हाथ कोड़े बरसाने को मचल रहे हैं, ऐसे में हमें उन पर तरस आता है।
बेचारे का कसूर ही क्या है। जानना चाहते हैं, उनकी ग़लती क्या है। उनको अपने नाम की लाज बचाने की सज़ा मिल रही है।
मधु कोड़ा- मधु समझते हैं ना। अब तमाम मक्खियां शहद के पास खिंची आ रही हैं तो इसमें शहद का काहे का दोष। बल्कि वो तो आपको बराबर आगाह करत रहे कि- मूरख जनता, मैं ज़ुबान पर मधु लगता रहूंगा लेकिन पीठ पर जमकर कोड़े बरसाऊंगा। आख़िर अपने नाम का कोई इज़्ज़त है कि नहीं।

बताया जा रहा है कि मधु कोड़ा का बॉलीवुड कनेक्शन भी रहा। अब भइया सुन लिये होंगे कहीं से कि बॉलीवुड में ख़ानों का सिक्का चलता है। सो आव देखे न ताव, झारखंड की तमाम खानों पर क़ब्ज़ा जमा लिये। जल्दबाज़ी बहुतई थी। बेचारे देखना ही भूल गए कि बॉलीवुड वाले ख़ान में तो नुक़्ता लगा हुआ है। अब उनकी नुक़्ताचीनी की कोई आदत रही हो ध्यान दें। । वो रहे निहायत सीधे सादे आदमी। पिताजी किसानी करते रहे, वो घर में बोरियों में नोटों को आलू समझ कर भरते रहे।

4 हज़ार करोड़ रुपये डकार गए यानी 1 दिन में करीब 3 करोड़ 60 लाख। इतना डकारना था तो दो-चार सौ का हाजमोला का भी बजट रख लिये होते - पेट दर्द तो नहीं होता। पड़े रहे कुछ दिन अपोलो रांची में पेट दर्द में जकड़े। इतना पचाना आसान थोड़े ही है।
मज़े की तो जे रही कि जब तक कांग्रेस के छत्ते से टपक रहे थे, सब ठीकही था, जैसे ही अचानक कोई भालू आकर इस छत्ते की ऐसी तैसी कर गया तबही से 'बिना परों की मक्खी, न इस छत्ते की न उस छत्ते की' जैसी हालत हुई रही।

(चित्र सौजन्य: द हिंदू)

Monday, November 9, 2009

हिंदी के लिए ऐतिहासिक दिन- ख़बरिया चैनलों ने दिया 'राष्ट्रभाषा' का दर्जा !


अबु आज़मी ने महाराष्ट्र विधानसभा में हिंदी में शपथ क्या लेनी चाही, हंगामा मच गया। राज के गुंडों ने अपना घटियापन दिखाते हुए उनका माइक फेंका, थप्पड़ मारा। यानी टीवी के विजुअल का पूरा मसाला मौजूद था। सो दोपहर होते-होते ख़बरिया चैनल इन विजुअल्स पर 'गोलों' और 'तीरों' की बौछार से जगमग हो गए। अब चूंकि मैं बेचारा हिंदी भाषी हूं तो हिंदी चैनल ही देख रहा था। कुछ ही देर में चैनलों के एंकर्स को जोश चढ़ा और एमएनस के प्रवक्ता शिरीष पार्कर और एमएनएस के दूसरे लोगों से सवाल दागना शुरु कर दिया कि भई, हिंदी तो 'राष्ट्रभाषा' है, जिसका दर्जा राज्यभाषा(मराठी) से बड़ा है तो इसमें इतना बवाल काहे के लिए। लगा कि शायद मैंने कुछ ग़लत सुना है। लेकिन शाम पांच बजे के बुलेटिन्स में भी कमोबेश वही सुर कि आख़िर राज ठाकरे 'राष्ट्रभाषा' का सम्मान क्यूं नहीं कर रहे।
यानी शाम होते-होते ये तो पक्का हो गया कि मुझे अपने कान चैक कराने की कोई ज़रूरत नहीं। एंकर्स हिंदी को 'राष्ट्रभाषा' ही मान रहे हैं। लगा, शायद प्राइम टाइम में चैनल के आला अधिकारी ये ग़लती सुधार लेंगे और एंकर्स को बता देंगे कि भाईयों और महिला एंकरों(चैनलों में महिला एंकरों को बहन कहने का रिवाज नहीं है!)- हिंदी, देश की 'राष्ट्रभाषा' नहीं बल्कि 'राजभाषा' है यानी वो भाषा जिसमें केन्द्र का सरकारी कामकाज किया जाए।

लेकिन, मैं कितना ग़लत था। प्राइम टाइम में हिंदी के ख़बरिया चैनलों का अपनी 'राजभाषा' के लिए प्यार हिलोरें लेने लगा था। और फिर प्यार में सब जायज़ होता है न। सो, क्रोमा सेट भी तैयार हो गए कि - राष्ट्रभाषा पर 'राज' नीति'। एक बड़े ख़बरिया चैनल के मुखिया से जब इस पर आपत्ति जताई गई कि ये ग़लत है। संविधान ने ही तय किया था कि इस देश में इतनी भाषाएं बोली जाती है और सभी प्रमुख भाषाएं परिपक्व हैं। ऐसे में किसी एक भाषा को 'राष्ट्रभाषा' नहीं बनाया जा सकता, तो उनका जवाब था कि अरे, हिंदी प्रदेशों के लोग तो इसे 'राष्ट्रभाषा' ही मानते हैं न। यानी चैनल का जो स्टेंड है, वो सही है। लेकिन ये तर्क समझ से परे है। इस तर्क पर चलें तो फिर राज ठाकरे से ज़्यादा सही तो कोई नहीं है जो मराठी प्रदेश का होकर उसे ही 'राष्ट्रभाषा' मान रहा है।

दरअसल, जो कुछ महाराष्ट्र विधानसभा में हुआ, वो शर्मनाक़ है। संविधान आपको छूट देता है, किसी भी भाषा में शपथ लेने की और जो गुंडागर्दी राज के गुर्गों ने की उसके लिए उन्हें कड़ी सज़ा भी मिलनी चाहिए। मेरा सवाल सिर्फ़ इतना है कि इस मुद्दे के बाद हमारे हिंदी ख़बरिया चैनलों का रवैया अजीब तरीक़े से इकतरफ़ा रहा है, जिसमें उनकी निष्पक्षता नहीं बल्कि हिंदी को लेकर बावलापन ज़्यादा नज़र आ रहा था। जो कहीं-कहीं उसे देश की दूसरी भाषाओं से श्रेष्ठ ठहराने की कोशिश तक जाने को तैयार था। ये अति उत्साह ही हिंदी को 'राजभाषा' से 'राष्ट्रभाषा' बना गया। इस अति उत्साह का एक नुकसान ये भी हुआ कि एमएनएस की इस घिनौनी हरकत पर जो दूसरे अहम सवाल उठने चाहिए थे, वो सब दब गए।

मैं हिंदी में ब्लॉगिंग करता हूं और मुझे ये भाषा बोलने पर फ़ख्र है, लेकिन क्या मुझे इससे ये हक़ मिल जाता है कि मैं कहूं कि नहीं, ब्लॉगिंग सिर्फ़ हिंदी में होनी चाहिए क्यूंकि यही श्रेष्ठ है, बाक़ी सब कूड़ा है। अगर नहीं, तो हिंदी ख़बरिया चैनलों को भी कोई हक़ नहीं कि हिंदी को लेकर बावलापन दिखाया जाए।

सबसे मज़े की बात ये कि हिंदी को 'राजभाषा' की जगह 'राष्ट्रभाषा' बताकर इन चैनलों ने हिंदी भाषा के बारे में जानकारी का अभाव ही दिखाया है।
वैसे सुबह अख़बार क्या लिखते हैं, देखना दिलचस्प होगा।

Wednesday, October 7, 2009

करवाचौथ पर एक विवाहिता का ख़त यश चोपड़ा के नाम

ये एक ख़त आपसे शेयर कर रहा हूं। शायद पोस्ट नहीं किया गया, आज रास्ते में पड़ा मिल गया था :-)

डियर यश चोपड़ा जी
आप तो जानते ही होंगे कि आज करवा चौथ है। मैं भी कितनी पागल हूं, आपसे से ये सवाल कर रही हूं। वो क्या है कि पहली बार इत्ते बड़े आदमी को चिट्ठी लिख रही हूं न इसलिए, इससे पहले सिर्फ़ अपने प्रेमी को लिखने का तजुर्बा है। अब आपसे क्या छुपाना। आप नहीं जानते कि आपने डीडीएलजे बनाकर देश पर कितना उपकार किया है। हम विवाहिताओं के लिए यही तो एक दिन होता है जब हमें भी लगता है हमारा पति एकाकार होकर शाहरुख़, सलमान या अमिताभ बन गया है। वर्ना रोज़ तो वही किसी एक्स्ट्रा की तरह कोने में पड़ा रहता है। इस दिन लाखों मेंहदी वालों की दुआएं भी आपको लगेंगी क्यूंकि अगर यश राज फ़िल्म्स न होता तो समझिए, इस 'पावन' दिन हज़ारों-लाखों लोग बेरोज़गार ही रहते। हर सड़क, गली, नुक्कड़, कूचे में यूं छोटा सा स्टूल, उसके दोनों तरफ़ निकला भीमकाय शरीर और साथ खड़ा 45 किलो का जीव कहां नज़र आ पाता। वो पार्लर, वो डिज़ायनर चोली-छलनी (बिना साम्य के बावजूद दोनों को एक साथ समेटने के लिए माफ़ी), वो सजना-संवरना, वो इतने सारे ताम-झाम के बदले में 'हीरा है सदा के लिए' की आस...बस ये समझ लीजिए कि मंदी के इस दौर में आप बाज़ार को अनजाने में ही नई दिशा दे रहे हैं। आभार।

वो तो आपका शुक्रिया करने से रहे। चलिए, हमारे ख़बरिया चैनलों की तरफ़ से मैं ही आपको शुक्रिया अदा कर देती हूं। अब आप उनको इतना माल-मसाला जो देते हैं। इस 'पुनीत' अवसर पर बनने वाले कार्यक्रमों में बैकग्राउंड में आप ही की फ़िल्मों का संगीत गूंजा करता है। ऐश्वर्या सरीखियों का करवाचौथ 'कैप्चर' करने के लिए 'जलसा' के सामने वाले फ़्लैट तक किराए पर लिए जाते हैं। हम जैसी विवाहिताएं भी टीवी के सामने बैठकर 'एक्सपर्ट्स' से समझती हैं कि आख़िर कौन से साम-दाम-दंड-भेद से पति को इसी भांति काबू में रखा जा सकता है। तब जाकर इन चैनलों के प्रोड्यूसर टाइप लोग भी गर्व से टीआरपी का तिलक लगा के अपनी-अपनी वालियों के सामने जाके खड़े हो पाते हैं। इसलिए,इनकी तरफ़ से आपका शुक्रिया, करवाचौथ को घर-घर पहुंचाने के लिए, ये आप ही के काम को आगे बढ़ा रहे हैं।

और तो और पर्यावरणविद् तक आपको थैंक्स कह रहे होंगे। जब करोड़ों महिलाए निर्जला व्रत रखेंगी तो करोड़ों लीटर पानी की बचत भी तो होगी। बल्कि वो तो कह रहे हैं कि करवाचौथ जैसे 'एनवायरनमेंट फ़्रैंडली' दिन को महीने में एक बार अनिवार्य कर देना चाहिए।

अच्छा अब लिखना बंद करती हूं। काफ़ी तैयारी करनी है। रात को शाहरुख़... नहीं..मेरा मतलब मेरा वाला, पानी के साथ कुछ चमकने वाली चीज़ भी लाने वाला है।
हां, मेरी तरफ़ से भंसालीजी और रवि चोपड़ाजी को भी तहेदिल से शुक्रिया अदा कीजिएगा। उनका योगदान भी कम नहीं रहा है, इस 'महापर्व' का मेक-अप करने में।

मैं उम्मीद करती हूं कि अगले साल चांद नज़र न आए तो उसकी जगह आपकी और आदित्य जी को तस्वीरों की ही अर्घ्य चढ़ा लिया जाए।

आपकी (अपने पति की भी) एहसानमंद
एक पूर्ण स्वदेशी विवाहिता

Friday, October 2, 2009

हमारी पीढ़ी के लिए शहर 'किरदार' क्यूं नहीं बन पाते ?


मैं जब भी घर-परिवार या बाहर किसी बड़े से उनके शहर के बारे में यादों की चाशनी में पगी बातें सुनता था तो बड़ा अजीब लगता था। ये सोच कर नहीं कि देखो, इन लोगों को बैठे ठाले कुछ काम तो है नहीं बस गपोड़ बने रहते हैं। अजीब दरअस्ल ये सोच कर लगता था कि हमें अपने शहरों से इतना जुड़ाव क्यूं नहीं है। उनके लिए अगर शहर उनकी ज़िंदगी का एक हिस्सा रहे, एक 'किरदार' रहे तो हमारे लिए सिर्फ़ एक नाम क्यूं। आगे बढ़ने से पहले साफ़ कर दूं कि मैं बात कर रहा हूं आज के 22-28 साला नौजवानों की, जिनमें मैं भी शामिल हूं और इसलिए इस अजीब कश्मकश को शिद्दत से महसूस करता हूं। इस पर थोड़ा सोचने के बाद कुछ दिलचस्प बातें सामने आईं हैं। मुमकिन है इन्हीं बातों में 'अपने शहरों' से हमारी दूरियों का फ़लसफ़ा छुपा हो।

शहर ज़िन्दा होते हैं अपने अड्डों से। अड्डे, जिनसे यादें जुड़ी होती हैं, वहां जमने वालों की। अड्डे जो मिलकर शहर को उसकी शक्ल मुहैया कराते हैं, जो उसे एक ऐसे किरदार में बदल देते हैं जिससे दूरियां बहुत तड़पाती हैं। आपने कभी यार-दोस्तों के साथ खाते-पीते इस तरह के जुमले ख़ूब सुने होंगे- 'यार, चाय तो फलां जगह की होती थी, ये भी कोई चाय है' या फिर 'फलाने हलवाई की जलेबियों में गज़ब का स्वाद होता था' या 'कभी शहर जाना होता है तो दोस्तों की टोली यूनिवर्सिटी के पीछे वाले रेस्त्रां में ही मिलती है' या फिर 'याद है, मुहब्बत करने वाले अक्सर उसी पेड़ की छांव में ठंडक ढूंढ़ते थे। '
किसी शहर से लगाव पैदा करने में इस तरह की यादें बहुत अहम हो जाती हैं। अगर इस तरह की यादें नहीं हैं तो यकीन मानिए आपके लिए वो शहर सिर्फ़ एक नाम ही रहेगा या ज़्यादा से ज़्यादा वो जगह जहां आपकी शुरुआती शिक्षा हुई। अगर हमारे बुज़ुर्गों के पास ऐसी यादों की पूरी पोटली है तो हमसे एक पीढ़ी पहले के लोगों के पास मुट्ठी भर यादें तो हैं ही।

लेकिन हमारे पास क्या है?

ऐसा नहीं है कि हमारी पीढ़ी में अड्डेबाज़ी नहीं होती, ठीक-ठाक होती है। बस, अड्डे ऐसे हो गए हैं जो हर शहर में कमोबेश एक से हैं- एक दूसरे की फ़ोटोकॉपी। अब आप बरिस्ता, कैफ़े कॉफ़ी डे, मैकडोनाल्ड्स या पिज़्ज़ा हट जैसे नामों से तो अपने शहर को याद नहीं करेंगे न क्यूंकि जब आप अपने शहर को छोड़ आए हैं तो भी नए शहर में आपको ये सब मिलेंगे तो फिर वो ख़ास तो कहीं छूटा ही नहीं जो शहर को उस शिद्दत से याद दिलाए या कहिए कि दिल में दर्द पैदा कर दे कि वो भी क्या शहर था, वो भी क्या दिन थे। यानी हुआ ये कि आपके ट्रांसफ़र होते ही ये सारे अड्डे अपने पूरे रंग-ढंग के साथ ट्रांसफ़र हो गए। और फिर फ़ेसबुक, ऑरकुट और ट्विटर जैसे वर्चुअल अड्डे तो आपको शहर से लगाव पैदा करवाने से रहे।

तो बात यहां पर आकर ख़त्म हुई ठहरी कि जो हुआ सो हुआ, अगर अब अपने शहर जाना हो, तो उसे बिल्कुल नए नज़रिए से देखने की कोशिश करेंगे। जैसे टूरिस्ट देखता है- हर चीज़ को ख़ासी बारीकी और जिज्ञासा से। तब हमें ज़रूर कुछ ऐसी चीज़ें मिल जाएंगी जो हमें भी अपने शहर पर नाज़ करने, उसे याद करने का मौका देंगीं।

इस विश्लेषण में मुझे पूरी उम्मीद है कि कई जगह आप मुझसे इत्तेफ़ाक नहीं रखते होंगे और मुझे इस बात की भी पूरी उम्मीद है कि आप अपनी टिप्पणी के ज़रिए अपनी बात भी रखेंगे। हो सकता है आप इसी पीढ़ी के हों और अपने शहर को शिद्दत से याद करते हों। हम आसानी से इस विश्लेषण में जोड़-घटाव कर सकते हैं...लेकिन आपकी मदद से ही।

Saturday, September 19, 2009

शशि थरूर- जो किया नहीं उसकी सज़ा


अब तक अख़बार और टीवी ही बरस रहा था, अब अपनी ब्लॉग की दुनिया भी थरुर की जान के पीछे हाथ धोकर पड़ गई है। जानते हैं,शशि थरुर की ग़लती क्या है- महज़ इतनी कि वो बेचारे अभी सरज़मीं-ए-हिन्दुस्तान की सियासी मिट्टी में ढंग से लोट नहीं लगा पाए हैं। इसलिए हमारी राजनीति के तौर-तरीक़ों से वाक़िफ़ नहीं है। मैं न तो थरूर का प्रवक्ता हूं और न ही उन्हें बहुत क़रीब से जानता हूं। सवाल बस ताज़ा विवाद पर उठाना चाहता हूं। पता नहीं जो थरूर पर बरस रहे हैं उनमें से कितने ट्विटर पर हैं और कितने उसके इंटरफ़ेस से परिचित हैं। मुझे क़रीब 8 महीने हुए हैं ट्विटर पर और लगभग इतना ही समय थरूर को फ़ॉलो करते हुए।
मोटा-मोटा समझिए तो ट्विटर पर आप जो लिखते हैं उसे ट्वीट कहा जाता है और आपके ट्वीट पर कोई जवाब दे सकता है या कुछ पूछ सकता है। इसके अलावा आप ट्विटर पर मौजूद लाखों लोगों में से जिसको चाहें फ़ॉलो कर सकते हैं यानी उनके ट्वीट्स आपके होमपेज पर नज़र आएंगे।
अब सुनिए, एक साहब हैं कंचन गुप्ता। चंदन मित्रा वाले अंग्रेज़ी अख़बार- पायनियर के असोसिएट एडिटर हैं। उन्होंने शशि थरुर से पूछ लिया-
# @ShashiTharoor- Tell us Minister, next time you travel to Kerala, will it be cattle class?
11:57 PM Sep 14th from TweetDeck in reply to ShashiTharoor

इस पर थरूर का जवाब था-
# @KanchanGupta- absolutely, in cattle class out of solidarity with all our holy cows!
12:17 AM Sep 15th from web in reply to KanchanGupta

ध्यान दीजिएगा कि कैटल क्लास शब्द थरूर ने इस्तेमाल नहीं किया है, ये महज़ जवाब है उस सवाल का जिसमें कंचन ने ये इस्तेमाल किया है। अब आप इसे आराम से मुद्दा बना सकते हैं कि थरुर को तो कंचन की बात का विरोध करते हुए ये लिखना चाहिए था कि ये आप क्या कह रहे हैं। इकॉनॉमी कोई कैटल क्लास थोडे ही होती है। आपने क्या देश के आम आदमी को मवेशी समझ रखा है। लानत है आप पर, वग़ैरह, वग़ैरह...लेकिन जैसा मैंने शुरु में कहा- अभी इस सियासी रज में लोट नहीं लगाई है सो बेचारे यहीं मात खा गए। लिख दिया- ज़रूर सफ़र करूंगा-मवेशी क्लास में, पवित्र गायों के साथ अपना सहयोग दर्शाते हुए।
अब कांग्रेस भी बिफर पड़ी ये सुन के। आप ग़लत समझे, सच पूछा जाए तो कांग्रेस कैटल सुन के थोड़े ही भड़की है वो तो Holy Cows को नहीं पचा पा रही। ऐसे कैसे कोई सोनियाजी और राहुलजी की यात्राओं का मज़ाक उड़ा सकता है-असल तकलीफ़ ये है। बाक़ी कैटल-वैटल जिए,मरे उसकी बला से। कांग्रेस का पैग़ाम साफ़ है- Holy Cows पर हाथ नहीं डालने का, क्या ! इस पूरे प्रकरण में मुझे, कम से कम यही लगता है कि थरूर की टिप्पणी एक सवाल का सहज, हास्यपूर्ण जवाब था, उससे ज़्यादा कुछ नहीं।

बाक़ी, इस पोस्ट के जिन पाठकों ने रेल की जनरल बोगी में सफ़र किया होगा, वो जानते होंगे कि असल कैटल क्लास क्या होता है। एक बात और। हम जनरल बोगी में कोई जानबूझ कर सफ़र नहीं करते- तब करते हैं जब या तो रिज़र्वेशन नहीं मिलता या इतना पैसा नहीं होता। जहां हम अभी भी सैकड़ों रेलगाड़ियों की हज़ारों जनरल बोगियों में लकड़ी की सीट पर दो इंच फ़ोम नहीं लगा सके वहां किस क्लास की बात कर रहे हैं।

कम से कम ब्लॉग की दुनिया में शशि थरुर के बहाने बहस इस बात पर होती कि हमारे यातायात के तमाम साधनों में किस क़दर क्लास बना दी गईं हैं और आम आदमी की औक़ात जानवर से ज़्यादा नहीं समझी जाती तो मुझे भी लगता कि ब्लॉग की दुनिया वाक़ई अलग है। लेकिन हमने तो अख़बार और टीवी की नकल ही की।

लेकिन उम्मीद है कि अगली बार कोई बहस अपने अंजाम तक पहुंचेगी और दूर तक देख सकेगी।

Wednesday, September 16, 2009

अगर अपने मोबाइल में दर्ज नम्बर खोना नहीं चाहते तो इसे ज़रूर पढ़ें

अगर आपका फ़ोन चोरी हो जाए, खो जाए या पानी में गिर जाए तो जो सबसे पहला ख़्याल आपको आता है, वो है- अरे मरे, गए सारे नम्बर्स। फिर शुरु होती है क़वायद वो सारे नम्बर्स इकट्ठा करने की। फिर भी सारे मिलते नहीं है। हां, अगर आपने अपने कम्प्यूटर पर बैकअप लिया है तो भी इस बात की संभावना है कि वो काफ़ी दिनों से अपडेट नहीं हुआ होगा। इसलिए 100-150 नम्बर फिर भी नहीं मिलेंगे।
आपकी इन सारी परेशानियों का एक जादुई इलाज है। एक वेबसाइट है- ज़ायब.कॉम। बस आपके फ़ोन में जीपीआरएस होना चाहिए। साइट पर जाइए, अकाउन्ट बनाइये, फ़ोन चुनिए, वो जो सेटिंग्स भेजेगा आपके फ़ोन पर, उसे सेव कीजिए और बस कर दीजिए सिंक- कुछ ही सेकेन्ड्स में सारे नम्बर्स का बैकअप ज़ायब पर। इतना ही आसान। उसके बाद दो-चार दिन में जब भी वक़्त मिले सिंक कर लीजिए- उन दो-चार दिनों में जो भी नए नम्बर आपकी फ़ोनबुक में जुड़े होंगे, ज़ायब पर सेव हो जाएंगे। ये सब जीपीआरएस पर हो रहा है तो सिंक के लिए आपको किसी कंप्यूटर के पास होने की भी ज़रूरत नहीं है।
अब ख़ुदा न खास्ता, आपके फ़ोन के साथ कोई भी दुर्घटना होती है, लेकिन आपके नम्बर हमेशा सेव रहेंगे। आप फ़ोन बदलेंगे तो भी आपको ज़ायब को सिर्फ़ ये बताना है कि भई मैंने नया फ़ोन लिया है, वो वही सेटिंग्स आपको नए हैंडसेट पर भेज देगा और लो सारे नम्बर नए फ़ोन में आ गए।
हां, सबसे ज़रूरी बात- इसके लिए आपको चुकाने होंगे सिर्फ़ 1000 रू. सालाना। क्या कहा, महंगा है। सच है, हम हिन्दुस्तानी कभी नहीं बदलेंगे।
मज़ाक कर रहा था, सेवा बिल्कुल मुफ़्त है (मुफ़्त में भी बिल्कुल लगाना पड़ रहा है, आपकी तसल्ली के लिए)। अब तो लेंगे न बैकअप।
कोई सवाल हो, इससे जुड़ा तो मुझे मेल कर सकते हैं- laughingprabuddha@gmail.com (कम्पनी मेरी नहीं है भइया, जानकारी अच्छी है इसलिए सहयोग कर रहा हूं ! ! ! पिछले डेढ़ साल में इसने कई बार मेरी जान बचाई है।)

Tuesday, September 15, 2009

वो फ़्लॉपी याद आती हैं !

आज सवेरे अलमारी में कुछ ढूंढ़ रहा था। जिसकी तलाश थी वो तो नहीं मिला, कुछ पुरानी फ़्लॉपी ज़रूर मिल गईं। अचानक मिली इन फ़्लॉपीज़ से मेरे होठों पर मुस्कान बिखर गई। कुल 8 फ़्लॉपी- 5 चालू हालत में थीं (इनका नाम किसने रखा, याद है आपको नए डिब्बे में भी 10 में से दो-तीन फ़्लॉप निकल जाती थीं) जिनमें कॉलेज़ के ज़माने की कुछ वर्ड फ़ाइल्स थीं। मुस्कान की वजह इनके अंदर का डेटा नहीं बल्कि उस डेटा का साइज़ था। कॉलेज ख़त्म हुए क़रीब 4 साल हुए हैं लेकिन इन 4-5 सालों में डेटा स्टोरेज किस क़दर बदल गया है ये फ़्लॉपी उसका सुबूत हैं। महज़ 1.44 एमबी, अब आप इस स्टोरेज क्षमता पर हंसने के अलावा और कर भी क्या सकते हैं। लेकिन याद कीजिए कुछ साल पहले यही फ़्लॉपी आपके कितने काम आती थीं। नए कंप्यूटर्स में तो फ़्लॉपी ड्राइव आना ही बंद हो गई। तब 128 एमबी पेन ड्राइव धारक भी दोस्तों के बीच ख़ूब धाक जमाता था। अब अगर कोई 1 जीबी पेन ड्राइव के साथ नज़र आता है तो आप कहते हैं, अरे, ज़्यादा मेमोरी वाली लेलो यार, बड़ी सस्ती हो गई हैं। एक टेराबाइट की पेन ड्राइव तक उपलब्ध है। एक टेराबाइट समझते हैं यानी 1024 जीबी यानी सात लाख अट्ठाइस हज़ार सात सौ छिहत्तर फ़्लॉपी। वो एक टीबी की पेन ड्राइव आपकी जेब में समा जाती है और सात लाख फ़्लॉपी?!?! मुझे लगता है कंप्यूटर्स की दुनिया में सबसे ज़्यादा बदलाव डेटा स्टोरेज में ही आया है। वो पहले से बहुत सस्ते और सुलभ हो गए हैं। और इसकी सीधी वजह छिपी है हमारी डेटा की बढ़ती ज़रूरतों में। अब आपको अपने अनलिमिटेड इंटरनेट कनेक्शन के ज़रिए डाउनलोड हुए टॉरेन्ट्स को भी तो स्टोर करना पड़ता है। पहले तो नज़दीक के साइबर कैफ़े में जाकर मेल चैक हो जाती थीं। अब मेल से भेजे गए फ़ोटो-वीडियो वगै़रह भी सेव करने पड़ते हैं ! फिर ताज़ातरीन संगीत डाउनलोड को कैसे भूला जा सकता है ! यानी कुल मिलाकर हालत ये रहती है कि उफ़, कंप्यूटर बार-बार यही कहता रहता है- 'लो मेमोरी, लो मेमोरी'। अरे, क्यूं परेशान करता है, मेरे भाई, 'ले लूंगा, ले लूंगा'। तब तक जो मूवी देख चुका हूं, डिलीट करता हूं न...आप भी तलाशिये, हो सकता है भूली-बिसरी कुछ फ़्लॉपी हाथ लगें। और तो पता नहीं लेकिन आप मुस्कुराए बिना नहीं रह सकेंगे।

Sunday, September 13, 2009

सुनो, तुम्हारी आंखों में मेरे कुछ ख़्वाब पड़े हैं


मैं जब भी देखता हूं तुम्हारी आंखें
थोड़ा डर सा जाता हूं
पता नहीं इनमें से
कितने, पूरे कर सकूंगा
हां, मैं तुम्हारी इन आंखों में
हर पल बुनते
हज़ार ख़्वाबों की ही बात कर रहा हूं
सुनो
जो कभी मैं पूरा कर सका कोई ख़्वाब
तुम मुझसे रूठ तो नहीं जाओगी
तुम मुझे छोड़ तो नहीं जाओगी
हां-हां, मैं जानता हूं
हम
प्यार में हैं
ये नहीं है कोई सौदा
जिसमें लेन-देन हो
पता नहीं
फिर क्यूं डरता हूं

मेरे इस डर को दूर करने के लिए
तुम्हें एक वादा करना होगा
एक छोटा सा वादा

तुम ख़्वाब हमेशा
मेरी आंखों से देखोगी
और मुझे...
जब भी देखने होंगे ख़्वाब
कहूंगा तुमसे
सुनो,
तुम्हारी आंखों में मेरे कुछ ख़्वाब पड़े हैं

Wednesday, August 12, 2009

इस भ-सूंड ने तो परेशान कर दिया !


आपको पता है, यूपी में आकाशवाणी हुई? क्या कहा, आपने नहीं सुनी। नहीं जनाब, अपने कानों को दोष देने की ज़रूरत नहीं है। दरअसल ये हमारे आपके सुनने के लिए बनी भी नहीं थी। ये हायली एनक्रिप्टेड आकाशवाणी उत्तर प्रदेश शासन के लिए थी जो जल्द ही डीक्रिप्ट कर ली गई। संदेशा है कि उठी सूंड वाले हाथी से बीएसपी के चुनाव चिन्ह को जोड़ कर न देखा जाए, ये तो अनादि काल से भारत में स्वागत प्रतीक के तौर पर इस्तेमाल होते आए हैं। लेकिन मज़ेदार बात ये कि ये सब बिल्कुल अचानक हुआ। जैसे आप सुबह उठ कर पाएं कि आज अख़बार में स्वाइन फ़्लू से जुड़ी कोई ख़बर नहीं है। चुनाव आयोग के डंडे ने यूपी सरकार के दिमाग़ के सारे तंतुओं को पहली बार एक साथ काम करने का मौक़ा दिया और नतीजा सामने है। उठी सूंड लाख की, झुकी सूंड खाक की। बुतपरस्त देश में यूं भी मूर्तियां बनवाना कोई गुनाह तो नहीं।

लेकिन जबसे ये ख़बर हाथियों को पता लगी है, हड़कंप मच गया है। यूनियन नेता गजराज ने कहा है कि हमारे यहां सूंड के स्टाइल पर भेदभाव की इजाज़त नहीं है। अगर आदमी अपनी नाक जब चाहे ऊपर-नीचे कर सकता है तो हम क्यूं नहीं। हमारी ये मांग है कि हमारे झुकी सूंड वाले साथियों को बराबरी का दर्जा दिया जाए। अब गजराज को कौन समझाए कि इधर उन्हें बराबरी का दर्जा मिला नहीं कि उधर चुनाव आयोग दर्ज चिन्ह ही छीन लेगा। लेकिन गजराज जो अड़े सो अड़े। कहते हैं कि उनके समाज में इस उठी-झुकी सूंड के चक्कर में ख़ासा कन्फ़्यूजन हो गया है। नन्हे हाथियों को समझ ही नहीं आ रहा कि वो कब अमर होंगे- उठी सूंड की प्रैक्टिस करनी पड़ेगी या झुकी से ही काम चल जाएगा। हथिनियां राखी के स्वयंवर की तर्ज़ पर सूंडें देखकर वर चुन रही हैं। सवाल पूछती हैं- 'वो' वाले पार्क में होकर आया? अगर हां, तो वैसे ही एंगल में सूंड को घुमा कर दिखा। अगर हाथी कामयाब रहा तो भी शादी नहीं, सिर्फ़ सगाई। निगोड़ी ख़ुद को राखी समझ रहीं हैं। कहती हैं, अगले चुनाव तक देखूंगी, अगर सूंड का घुमाव ठीक रहा तभी शादी होगी। हाथी बिचारे- इस 'सच का सामना' करते-करते परेशान है। इस समय हाथियों की दुनिया का सबसे हिट वीडियो है- 7 दिन में 'उसी' पार्क जैसी सूंड कैसे उठाएं। तो ये गफ़लत है, हमारे गजराज की। उनकी इस परेशानी को देखकर तो मैं भी बेहद परेशान हो गया हूं।

अब तो मैं उसको ढूंढ़ रहा हूं जो इस सारी भ-सूंड की जड़ है।

Sunday, August 2, 2009

आरा मशीन पर रख दो सारे ग़म

कंस्ट्रक्शन का बूम है
कुछ तो फ़ायदा उठा लो
मेरी मानो
आरा मशीन पर रख दो सारे ग़म
एक-एक ग़म
बेमौत मरेगा
टुक़ड़े-टुकड़े
यहां-वहां गिरेगा
रह जायेंगी बस ख़ुशियां
समेट के सारी
ख़ुशियां प्यारी
ग़म की दीवार ढहाओ
इमारत बुलंद बनाओ

Wednesday, July 29, 2009

मैं थक गया हूं, ज़हानत का ये नक़ाब ओढ़े-ओढ़े


मैं थक गया हूं
ज़हानत का ये नक़ाब ओढ़े-ओढ़े
करना कुछ चाहता हूं
करना कुछ पड़ता है
वरना लोग कहेंगे
देखो, कैसा जंगली है
लेकिन बहुत हुआ
मुझे अब परवाह नहीं किसी की
मैं सच कह रहा हूं
नोंच के फेंक दूंगा इसे
क्यूंकि

मैं थक गया हूं
ज़हानत का ये नक़ाब ओढ़े-ओढ़े

मैं सभरवाल के हत्यारों को
चौराहे पर लटकाना चाहता हूं
चाहता हूं हरेक नेता को
कुछ दिन के लिए सीमा पर भेजना
मैं विधानसभाओं और संसद में
कामकाज ठप करने वालों पर
लाइव कोड़े बरसाना चाहता हूं
मैं जागते हुए भी सोने का नाटक करने वालों को
उठाना चाहता हूं
मैं सच कह रहा हूं
मैं किसी भी पल ये कर सकता हूं
क्यूंकि

मैं थक गया हूं
ज़हानत का ये नक़ाब ओढ़े-ओढ़े

मैं मिलावटख़ोरों को
मिलावटी मौत से अपंग बनाना चाहता हूं
चाहता हूं नक़ली नोट बनाने वालों की
चमड़ी के सिक्के चलाना
मैं बलात्कारियों को
भूख़े शेर के पिंजरे में छोड़ना चाहता हूं
मैं सच कह रहा हूं
अब इन इच्छाओं को दबाऊंगा नहीं
क्यूंकि

मैं थक गया हूं
ज़हानत का ये नक़ाब ओढ़े-ओढ़े

मैं दंगा कराने वाले आक़ाओं के
अपनों के गले में जलते टायर डालना चाहता हूं
चाहता हूं आतंकवादियों के रिश्तेदारों को
उनकी आंखों के सामने छलनी करना
मैं माहौल में घुला ज़हर
सोखना चाहता हूं
मैं सच कह रहा हूं
मुझसे ये सब होके रहेगा
क्यूंकि

मैं थक गया हूं
ज़हानत का ये नक़ाब ओढ़े-ओढ़े

Tuesday, July 28, 2009

माउंट एवरेस्ट उसी का है !


अस्सी बरस से ज़्यादा हुए
वक़्त पर पड़ी बर्फ पिघली तो सही
हमें माफ़ कर देना, मैलरी
हम गुनहगार हैं तुम्हारे
कई पीढ़ियों के भी
लेकिन हम क्या करते
इतिहास सुबूत मांगता है
और दुनिया ने देखा था
सिर्फ एडमंड हिलेरी और तेनज़िंग का सच
लेकिन अब हम जानते हैं
वो तुम थे मैलरी, तुम

दुनिया में एक तस्वीर इतनी ज़रूरी कभी नहीं हुई
इस एक तस्वीर ने हमें बचा लिया, मैलरी
चोमोलंगमा- दुनिया की देवी माँ
यही कहते थे न तुम भी उसको
उन्तीस हज़ार फीट की ऊँचाई पर
तुम्हारी जीत भरी मुस्कान की ये तस्वीर
इतिहास को फिर से लिखेगी
हम शर्मिंदा हैं तो बस ये सोच कर
तुम्हें इन्साफ देने में हमने देर लगा दी
लेकिन हमें फख्र है इस बात पर
तुमने इंसानी जज़्बे को नई ऊंचाइयाँ दी

हो सके तो हमें माफ़ कर देना, मैलरी

जॉर्ज मैलरी - वो नाम जो पर्वतारोहियों के बीच बेहद इज़्ज़त के साथ लिया जाता है। मैलरी 1924 के एवरेस्ट अभियान के लीडर थे। ये उनका तीसरा और आख़िरी अभियान था। इस बार वो जो गए तो लौट के न आ सके। 75 साल बाद 1999 में उनका शव मिला- 26,760 फ़ीट की ऊंचाई पर ( एवरेस्ट- 29 हज़ार फ़ीट) एडमंड हिलेरी और तेनजिंग ने 1953 में एवरेस्ट पर क़दम रखा था. इस बारे में काफ़ी बहस हो चुकी है कि क्या उस महान पर्वतारोही ने एवरेस्ट की चोटी पर क़दम रखा था लेकिन इस बारे में किसी बहस की गुंजाइश नहीं कि उसमें इस काम को अंजाम देने की क़ाबिलियत थी। तमाम डॉक्यूमेंट्स से इस बात की पुष्टि हुई है कि मैलरी, कामयाबी की सूरत में, अपनी पत्नी ऱूथ का फ़ोटो चोटी पर ऱखना चाहते थे। जब 1999 में उनका शव मिला तो ये फ़ोटो उनके बेहतरीन हालत में मिले शव और कपड़ों के साथ नहीं था। तो क्या.....
सच क्या है, पता नहीं। को़डैक कंपनी ने कहा है कि अगर मैलरी का कैमरा मिलता है तो इस बात की उम्मीद है कि उसकी फ़िल्म को डेवेलप किया जा सके।

ये कविता मुक़्क़मल नहीं है, ये मैं मानता हूं पर इसके मुक़्क़मल होने का इंतज़ार करना चाहता हूं। अगर 75 साल के इंतज़ार के बाद शव मिल सकता है तो थोड़ा और वक़्त गुज़रे, तस्वीर बोलेगी।

Wednesday, July 15, 2009

सत्रहवें फ़्लोर पर...



दो इमारतों के बीच ही सही
सूरज दिखता तो है
सा'ब उसकी लाली को
चाय की प्याली और घरवाली के साथ
अपनी जाली से देखकर
ख़ुश हो लेना

तारों भरा आसमान नहीं दिखेगा
तो आसमान तो नहीं टूट पड़ेगा
आपके पड़ोसी किसी स्टार से कम थोड़े ही हैं

अब लाइफ़स्टाइल की नहीं
स्टाइल की बात कीजिए
किराए का घर कब तक झेलेंगे
यहां, न सही आपके घर का आंगन
नीचे सोसायटी का पार्क तो है
बस आप इस सोसायटी में आ जाइए
फिर देखिए 'सोसायटी' में कितना नाम होगा

आप भी न साहब
'सेक्स एंड द सिटी' सामने है
और आप 'बालिका वधू' पर अटके हैं
थोड़े अप मार्केट बनिए
भाभीजी को नई दोस्त दिलाइए
ख़ुद को भी नई, मेरा मतलब
नए दोस्तों से मिलवाइए

सब छोड़िए
बच्चों के फ़्यूचर के बारे में सोचिए
इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स के पम्फ़लेट
इन दरवाज़ों से नहीं सरकते साहब
यहां बच्चों को, वो क्या कहते हैं
हां, माहौल मिलेगा

तो क्या मैं सत्रहवें फ़्लोर पर
टू बीएचके पक्का समझूं ???

Monday, May 25, 2009

प्लेट भर प्यार

मैं अक्सर घर देर से लौटता था
घर में मिलती थीं दो प्लेटें
एक में खाना
दूसरी में संवाद
दोनों एकदम गर्म

मैं अक्सर घर देर से लौटता हूं
घर में मिलती हैं दो प्लेटें
एक में खाना
दूसरी प्लेट से वो हर दोपहर ढका जाता है

Saturday, May 23, 2009

पहली उड़ान का जादू


एक लंबे इंतज़ार के बाद आख़िर मैं भी बादलों के पार हो ही आया। होश संभालने के बाद करीब 20 साल से ज़्यादा का लंबा इंतज़ार। लेकिन इसको इतना भर कहना ठीक नहीं होगा। दरअसल दिल्ली से पुणे तक का हवाई सफ़र यादों का वो सफ़र भी था जिसे मैंने होठों पर तैरती हल्की मुस्कान के साथ तय किया। मुझे याद है बचपन के वो दिन जब प्लेन गुज़रते ही आंखें आसमान की तरफ़ ख़ुद ब ख़ुद उठ जाती थीं...ऊपर की तरफ़ एक उंगली उठती थी...दोस्तों की चंद उंगलियों के साथ और फिर एक ज़ोरदार आवाज़- हवाई जहाज़sss । फिर जहाज़ के ओझल होने तक नज़रें उसका पीछा करती थीं। अरे हां, एयरहोस्टेस को लेकर भी तो जाने कितने ख़्यालात बुने जाते थे। क्या वो वाकई हूर की परी होती हैं? वगैरह, वगैरह। उन्हें देख कर लगा जैसे मैडम तुसाद से कुछ बेहतरीन दिखने वाले महिला पुतलों में बस जान फूंक दी गई हो...काफ़ी मैकेनिकल। शायद उनकी ट्रेनिंग होती होगी ऐसे ही...दो इंच मुस्कान फैलाएं...ध्यान रखें...मुस्कान छलकने न पाए। तब भी लगता था..नहीं यार...इसमें बैठना ज़रुर है। पढ़ा था...राइट बंधुओं ने कितनी मुश्किल से इसे बनाया। जब उनके पिता ने एक पादरी को बताया कि मेरे बेटे एक उड़ने वाली मशीन पर काम कर रहे हैं तो पादरी ने कहा- उनसे कहिए, ये सब छोड़ें, उड़ना देवदूतों का काम है, इंसान का नहीं। लेकिन आज राइट बंधुओं के लिए नतमस्तक हूं। उन्होंने उड़ान भरी...पहले सपनों की और फिर हक़ीक़त की। अब जब मैं भी उड़ आया हूं तो एक नया अनुभव साथ है। पूरे शहर की धड़कन सुननी हो तो इस जहाज़ से बेहतर साधन कोई दूसरा नहीं। स्वर्ग तो पता नहीं कैसा होता होगा लेकिन दूर तक बिखरे बादलों के कालीन को देखना वाकई एक अलग दुनिया के दरवाज़े खुलने जैसा था। मानो किसी की डलिया से कती हुई कपास उड़ कर बिखर गई हो। दूर कहीं सूरज कभी जलता, उबलता तो कभी थकता, छुपता दिखाई दे जाता था। जिंदगी में न जाने कितनी उड़ानें होती रहेंगी, लेकिन उनमें न तो इस पहली उड़ान की रूमानियत होगी और न ही वो जोश।

Monday, May 18, 2009

जब ख़ून पानी से सस्ता हो गया !



चुनावी नतीजों की धांयधांय के बीच ये ख़बर शायद ही किसी ड्रॉइंग रूम में बातचीत का बहाना बने लेकिन यक़ीन मानिए लोकतंत्र के सबसे बड़े मेले से ये ख़बर पूरी तरह जुड़ी हुई है। भोपाल में तीन लोगों की- मां-बाप और उनके बच्चे की सरेआम चाकू मारकर हत्या कर दी गई। आप कहेंगे, इसमें क्या हुआ, बर्बर होते समाज में ये तो कोई बड़ी बात नहीं हुई। वजह सुनने के बात शायद आपको सवाल करने की ज़हमत नहीं उठानी पड़ेगी। इन तीन बदनसीबों का क़सूर सिर्फ़ इतना था कि वो जल बोर्ड की पाइपलाइन से पानी चुरा रहे थे। गंभीर जल संकट से जूझते मध्य प्रदेश के इस हिस्से में कुछ लोगों को ये बर्दाश्त नही हुआ। क्यूंकि उन्हें भी चाहिए था- अपने हिस्से का पानी। सो पानी के चक्कर में तीन लोगों का ख़ून पानी बनकर बह गया। लेकिन जो चीज़ सबसे ज़्यादा डरावनी है वो है बाद की तस्वीर। मौजूद लोगों ने तीनों मृतकों को ज़मीन पर तड़पता छोड़ जल्द से जल्द पानी भरना बेहतर समझा। घटना के एक घंटे बाद ही पुलिस ने आकर तीनों शव उठाए।

प्रदेश में बीजेपी की सरकार है और केन्द्र में यूपीए की। दो ऐसी सरकारें जो विकास और ट्रबलशूटिंग स्किल्स के दम पर दो बार चुनी गईं। लेकिन जब ख़ून पानी से सस्ता होने लगे तो हालात बदलने के तरीक़े सरकारों को ही तलाशने होंगे। ये सच है कि प्रदेश बेहतर वर्षा से वंचित रहा है लेकिन ये ज़िम्मेदारी से मुंह मोड़ने का बहाना क़तई नहीं हो सकता। ख़ास तौर पर तब जब हालात इस क़दर ख़राब हो जाएं। फिर लोकतंत्र की जीत और विकास के नाम पर लौटती सरकारों पर कैसे भरोसा करें ?

Saturday, May 9, 2009

मेरे तो नीतीश कुमार दूसरो न कोय !


मेरे प्यारे नीतीश...मेरे भोले नीतीश...मेरी सत्ता की नैया बीच भंवर में गुड़ गुड़ गोते खाए, नैया पार लगा दे। इस समय राजनीतिक दल 'पड़ोसन' के गीत को थोड़े ट्विस्ट के साथ पेश करते ही नज़र आ रहे हैं। नीतीश ने जिस तरह बिहार की तस्वीर बदलने में क़ामयाबी पाई है वो तो क़ाबिले तारीफ़ है लेकिन जब ये तारीफ़ कोई ऐसा कर दे जिससे उम्मीद न हो तो राजनीतिक भूचाल उठना लाज़िमी है। कहानी शुरु हुई दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के कयास से कि नीतीश कांग्रेस के साथ आ सकते हैं। फिर क्या था नीतीश को रिझाने का सिलसिला शुरु हो गया। इस रिझाऊ-वेला में राहुल गांधी, बुद्धदेब भट्टाचार्य और प्रकाश करात भी उतर आए। अब बीजेपी को ये सब कहां बर्दाश्त था कि जिस दोस्ती को हमने इतने साल सींचा उसे कोई दूसरा हमारी आंखों के सामने से उड़ा के ले जाए सो उसका मन-मंदिर भी अशांत हो गया। पार्टी के बड़े नेताओं को कहना पड़ा कि नहीं भाई...नीतीश हमारे साथ ही हैं। जब ख़ुद नीतीश ने कह दिया कि वो एनडीए के साथ हैं तो बीजेपी की बांछें खिल गईं। बोली...हम न कहते थे, नीतिश से दोस्ती कोई झूठी थोड़े ही है। मन ही मन ये भी कहते होंगे कि जाएगा कहां..हमसे रूठेगा तो बिहार में सरकार कांग्रेस क्या खाके बचाएगी।

बिहार की 40 लोकसभा सीटों में अंदेशा है कि नीतीश की क़ाबिलियत 20-22 सीट झटक सकती है। ऐसे में हर किसी की चाहत यही है कि नीतीश बस किसी तरह उनको तवज्जो दे दें। लालू-पासवान की पतली हालत कांग्रेस की दूसरी बड़ी चिंता है। मायावती, नायडू, देवेगौड़ा, मुलायम जैसे नेताओं की प्रधानमंत्री पद की चाहत के बीच नीतीश ही वो खेवनहार नज़र आते हैं जो ज़्यादा महंगे पड़े बिना ही दलों के काम आ सकते हैं। सो लगे रहो...तब तक नीतीश भी तारीफ़ों की बाढ़ के बीच शायद कोई किनारा तलाश लें।

Wednesday, March 25, 2009

राष्ट्रीय फूल को बदल क्यों नहीं देते- आदर्श आचार संहिता कुछ यूं भी हो सकती है !



चुनाव आयोग का आदर्श आचार संहिता नाम शस्त्र कई बार बड़े अजीब क़िस्म के हालात पैदा कर देता है। अब देखिए न, कहा जा रहा है कि स्कूलों की दीवार से कमल का फूल, घड़ी, साइकिल और दूसरे तमाम चित्र जो किसी पार्टी का चुनाव चिन्ह हो सकते हैं, उन्हें मिटाना होगा। ये आचार संहिता के उल्लंघन के दायरे में आता है। बच्चा जब पूछेगा, सर हमारा राष्ट्रीय फूल कौन सा है? तो जवाब में शायद मास्साब कह दें, बेटा, मेरी मजबूरी समझ...गर्मी की छुट्टी के बाद पूछ लेना...सब बता दूंगा। ये सारे नियम उनके लिए भी जिनकी न तो अभी वोट डालने की उम्र है और न ही वो अपने घरों में मत को प्रभावित करने की ताक़त रखते हैं। तो फिर ये बवाल काहे के लिए...ख़ैर ये देखते-सोचते मुझे लगा कि अगर चुनाव आयोग आचार संहिता को लेकर थोड़ा और गम्भीर हो गया तो उसके क्या नतीजे हो सकते हैं। मुमकिन है कि ऐसे कुछ आदेश जारी कर दिए जाते -

1. कमल नाम के सभी लोगों को चुनाव तक नज़रबन्द किया जाए क्यूंकि पब्लिक में उनका नाम पुकारे जाने पर ख़ामख़्वाह दल विशेष को फ़ायदा पहुंचता है !

2. भारत सरकार औपचारिक तौर पर घोषणा कर राष्ट्रीय पुष्प को बदले !

3. कीचड़ में कमल खिलता है जैसे मुहावरों का प्रयोग नहीं किया जा सकता है। हां, इसकी जगह कीचड़ में नेता खिला लो, हम कुछ नहीं कहेंगे !

4. सभी नागरिकों को शॉल ओढ़ कर रहना होगा। हम जानते हैं कि गर्मी में ये थोड़ा मुश्किल है इसलिए इसकी जगह सूती कपड़े को भी ओढ़ा जा सकता है। पहनने का तरीक़ा शोले की डीवीडी देख कर ठाकुर से सीखें। उद्देश्य साफ़ है- इससे आपके हाथ नज़र नहीं आएंगे और एक दल को अनचाहा प्रचार नहीं मिल पाएगा। सरकार सूती कपड़े और शोले की डीवीडी पर सब्सिडी दे !

5. बिना रुकावट जारी घरेलू हिंसा करने वालों को ताकीद दी जाती है कि वो हाथ न उठाएं। इससे कोमल गालों पर छपा निशान अगर किसी को नज़र आया तो आचार संहिता का उल्लंघन होगा। हमें उम्मीद है कि इससे घरेलू हिंसा के मामलों में भी कमी आएगी !

6. साइकिल धारक नागरिक, हथियार धारक नागरिकों की तरह अपनी साइकिलें जमा करवाएं। वो या तो ग़ैरमौजूद पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल करें या फिर नई नवेली नैनो को भी घर ला सकते हैं। पर साइकिल क़तई नहीं !

7. गांवो और शहरों में मौजूद सभी हाथियों को अपना निशान लगा कर पास के जंगलों में छोड़ दें। शहरों में उनमें जनमत प्रभावित करने का माद्दा नज़र आता है !

8. जिन गांवों में अब तक बिजली नहीं पहुंची है वो समझ लें कि अंधेरा दूर करने के लिए लालटेन का इस्तेमाल वर्जित माना जाएगा। वो मोमबत्ती उपयोग कर सकते हैं या फिर नोकिया के फ़्लैशलाइट वाले मोबाइल भी !

आख़िर में जनता जनार्दन से अपील है कि वो भी हमें अपने सुझाव दे।

Saturday, March 21, 2009

मुझे मशहूर होना है



मैं भी सोचता हूं
लिखूं कोई कविता,गीत
या फिर एक शेर भला सा
जिसमें चांद हो, तारे हों, फूल हों
हो एक तोला 'माही वे' रत्ती भर 'मौला'
और हों कुछ प्यार की बातें
लिखूं वो कि जिसे सुनकर
कोई बरबस बजा दे ताली
करे वाह-वाह
हर तरफ़ मेरी ही जय हो !
कुछ तो ऐसा लिखूं कि
करन जौहर या यश चोपड़ा
कर लें मेरे लिखे गीत
अपनी फ़िल्म में शामिल
और हो जाऊं मैं उनकी तरह...
मशहूर

मैं जला रहा हूं आजकल
अपना लिखा वो सब
जिसे सुन कर कहीं ताली नहीं बजती थी
कहीं नहीं होती थी वाह-वाह
बस...
सन्नाटा सा पसर जाता था
ख़ामोशी
जो टूटने का नाम लेती थी
शरीर काठ में बदल जाते थे

अब छत पर कटती हैं रातें
देखते हुए चांद को
इस कोशिश में कि
मुझे भी दिख जाए उसमें
परी, नूर या रोटी ही सही
मेरे काम रहा है
'मौला'
गुंथ रहा है
कभी मुखड़े तो कभी अंतरे में

...मुझे भी मशहूर होना है

Sunday, March 15, 2009

फ़िल्म समीक्षा : गुलाल


Unapologetic, cares two hoots about everyone including the censors…if it thinks his films can’t do without an ‘A’ then be it...Here is one man who would not stoop low to please the producers or censors or moral brigade even if it takes five years to get his films released. That you call the power of conviction and that precisely is the reason why you have to have an opinion on his films and that too a strong one: unbearable or excellent, most of the time.


Gulaal, Anurag Kashyap’s latest outing in an election year is bound to create ripples for all the right reasons. The opening scene sets the tone for the story: Rajputana is to be freed as the Indian Govt has not only snatched the Princes’ privy purses but also failed to deliver on promises. Dukey Bana(Kay Kay) is the chosen man for the job. From the bigger picture to the not so bigger: student politics. A seedha-sada boy, Dileep(Raja Singh Chaudhary) who comes to study in Rajpur is sucked into politics after being stripped and ragged. He gets a crash-course in duniyadari from his room-mate, Rananjay Singh Ransa (Abhimanyu Singh) who is the angst ridden son of an erstwhile king. Dukey Bana is the uncrowned king of the town. He convinces Ransa to contest university election who finds his own illegitimate sister, Kiran (Ayesha Mohan) against him. He is killed by Karan ( Aditya Srivastava), his illegitimate brother who has some big plans for himself and his sister. Dileep is made to replace Ransa and win a rigged election by Dukey Bana. And from here starts Dileep’s journey downhill. He is seduced by Kiran to her advantage. She becomes the General Secy. of the union who later goes on to seduce Dukey Bana coz her brother, Karan wants to replace him as the senapati of the free Rajputana movement. The dirty game of politics becomes a bit heavy for Dileep who is already dejected by Kiran’s betrayal.


Gulaal has some bloody red (passionate) performances. Kay Kay as Dukey Bana steals the show whichever frame he stands in. Abhimanyu Singh gives an in-your-face performance who by the way, is also given some of the finest dialogues that he delivers with panache. Dileep’s character leaves a little more to be desired though he leaves an impact and is certainly a lambi race ka ghoda. Aditya as the restrained rogue is awesome. Mahie Gill in a loud cameo is lovable. Ayesha Mohan is the find of the film. Ah, this gives me immense pleasure- yes, Deepak Dobriyal as the right hand man of Dukey Bana and Piyush Mishra, the lost-in-his-own-world brother of Dukey Bana. One, who speaks also when he is silent and the other who utters gibberish and makes sense. Jesse Randhawa doesn’t get much scope in her ill drawn character of a ragged teacher.


If the first half gives you no time to look who is sitting next to you, the second half is a little sluggish. The film handles too many issues at one go- student politics, ragging, separatist state movements (you will be clearly reminded of Raj Thackeray in one scene where Dileep tells Dukey Bana that Rajputana is not for the Rajuputs alone) illegitimate children of the royals and hunger for power. Kudos to Piyush Mishra for Gulaal’s music and lyrics which give the film its authenticity, force, appeal and help take the narrative forward. The film not only has the best of lyrics but also the acidic dialogues (lend an ear!) And hey, like all his films, Gulaal too is high on metaphors. Just do yourself a favor- try to find as many as you can. A little observation and attention in the scenes and I promise you a smile on your face, enriching your movie watching experience. BTW, the first time Kiran meets Dileep asking for favors, the background wall screams of a lager beer ad- Democracy Lager- for strong people! ! !


Don’t go for this film if you are looking for some light entertainment. It won’t give you any. It hits you hard… hard in your face, tough on your heart, thought provoking for your brain.Watch it for some original brainwash !

(I wrote this post initially for http://newdelhifilmsociety.blogspot.com )
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