Monday, November 23, 2009
26/11- शहर के सीने में भी दिल धड़कता है
मैं डरा हुआ हूं, सहमा हूं
मैं ख़ामोश हूं, नाराज़ हूं
मैं वो शहर हूं, जिसमें
हाड़-मांस के इंसान रहते हैं
मैं कभी अजमेर हो जाता हूं
कभी जयपुर, कभी दिल्ली
तो कभी मुंबई
मेरे रिसते ज़ख़्मों को ढंकने के
नायाब इंतज़ाम ढूंढ़े हैं सबने
जब मैं दिल्ली होता हूं तो
वो दिल्ली की दिलेरी हो जाती है
जो कभी मुंबई हुआ तो
मुंबई की स्पिरिट
मेरे ज़ख़्म हरे रहते हैं
उनका इलाज नहीं करता कोई
बस, बे-होशी के कुछ इंजेक्शन
दिये जाते हैं हर बार
और मैं फिर तैयार हो जाता हूं
अगला हमला झेलने के लिए
एक बरस हुआ, जब मैं मुंबई था
मैं एक शहर हूं
मेरी ज़िम्मेदारी है
यहां रहने वालों की हिफ़ाज़त
इस एक साल में जो कुछ बदला
उससे मैं मुतमईन नहीं हूं
हां, ग़मज़दा ज़रूर हूं
अपने बाशिंदो से मैं
ये वादा करना चाहता हूं कि
वो अब महफ़ूज़ रहेंगे
क़त्लो-ग़ारत का कोई मंज़र
उन्हें छू तक नहीं सकेगा
उनके बच्चे यतीम नहीं होंगे
किसी मां के आंसू निकलेंगे
तो अपने बच्चे का
पहला क़दम उठता देखने की ख़ुशी से
उसकी आख़िरी चीख़ सुनने के बाद नहीं
किसी बाप को अपने बेटे को कांधा नहीं देना होगा
उस कलाई पर राखी हर साल सजेगी
ये सब कहना चाहता हूं मैं
अपने बच्चों से, अपने बाशिंदों से
पर कहूं कैसे
जानता हूं ये सच नहीं है
उन्हें ख़ुश देखने के लिए मैं झूठ बोल भी दूं
लेकिन फिर सोचता हूं कि
जब सच बेपर्दा होगा
तो उनका
अपने शहर से भरोसा उठ जाएगा
मैं ख़ुद नहीं समझ पा रहा
मेरी चुप्पी मेरी मजबूरी है
या मेरी कमज़ोर याद्दाश्त का नतीजा
ये जो कुछ है
है बहुत डरावनी
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बहुत अच्छी रचना...सोचने को विवश करती है...
ReplyDeleteनीरज
मैं ख़ुद नहीं समझ पा रहा
ReplyDeleteमेरी चुप्पी मेरी मजबूरी है
या मेरी कमज़ोर याद्दाश्त का नतीजा
ये जो कुछ है
है बहुत डरावनी
बहुत सुन्दर, इसे बात पर बहुत पहले एक कविता लिखी थी कुछ लाइने प्रस्तुत करना चाहूँगा ;
वह बोला, वह भूख से फूटा था, भूख से !
अरे भूख से भी कोई बम फूटता है क्या ?
कौतुहल से पुछा ! बिना कोई भाव चेहरे पे लाये वह बोला !
सारे बमों का 'ट्रिगर' भूख ही होता है मूर्ख !
हादसे में मरने वाले भी भूखे थे, मारने वाला भी !
बस भूख के माएने अलग थे दोनों के लिए !
मरने वाला पेट से भूखा था, मारने वाला दिमाग से !
अच्छा मान लिया , अब बता वो जो जयपुर में फूटा था...............
..........................................................
अबके वह जोर से हंसा और बोला 'इडीएट'....
यह राजनीतिक घोटाला तेरी समझ में नही आएगा !
सांपो को दूध पिलावोगे तो, जहर कहा जाएगा ?
आपकी रचना में आतंकवाद के साये में शहरों की बेवसी झलकती है.........और झलकती है उन बेगुनाहों के रक्त रंजित लाशें जिस पर सफ़र करके आतंकी फल फुल रहे हैं. लेकिन शुरुआत की अंत होती है ये शहर भी ऐसे नापाक आतंकी को एक दिन जरुर जवाब देगी. धन्यवाद
ReplyDeleteमैं पह्चान गया , आप भारत (INDIA) हो
ReplyDeleteआपकी ये कृति अत्यंत सुंदर और है और ये एक महानगर की त्रासदी और बेबसी दोनों को दर्शाने का मार्मिक प्रयास है। मैं ये आपसे उम्मीद करता हूं कि आप ऐसी कोशिश भविष्य में भी जारी रखेंगे।मैं पुन: आपके प्रयास पर आपको साधुवाद देता हूं। आपका अपना- संतोष ओझा
ReplyDeletenitant sahajbodh..
ReplyDeleteaaj ke parivesh ka...
sadhuwaad...
मैं बेचैन हूं, मगर कब तक
ReplyDeleteमैं ख़ामोश हूं, मगर कब तक
राह रुकी सी है, आंख झुकी सी है
शायद तुम्हारे शब्दों का असर है....
मगर कब तक.....
राष्ट्र भक्तों की चिंता मुखर हुई है आपकी कविता में
ReplyDeleteबधाई
बहुत सुंदर और उत्तम भाव लिए हुए.... खूबसूरत रचना......
ReplyDeleteसंजय कुमार
हरियाणा
http://sanjaybhaskar.blogspot.com
Email- sanjay.kumar940@gmail.com