Friday, October 2, 2009

हमारी पीढ़ी के लिए शहर 'किरदार' क्यूं नहीं बन पाते ?


मैं जब भी घर-परिवार या बाहर किसी बड़े से उनके शहर के बारे में यादों की चाशनी में पगी बातें सुनता था तो बड़ा अजीब लगता था। ये सोच कर नहीं कि देखो, इन लोगों को बैठे ठाले कुछ काम तो है नहीं बस गपोड़ बने रहते हैं। अजीब दरअस्ल ये सोच कर लगता था कि हमें अपने शहरों से इतना जुड़ाव क्यूं नहीं है। उनके लिए अगर शहर उनकी ज़िंदगी का एक हिस्सा रहे, एक 'किरदार' रहे तो हमारे लिए सिर्फ़ एक नाम क्यूं। आगे बढ़ने से पहले साफ़ कर दूं कि मैं बात कर रहा हूं आज के 22-28 साला नौजवानों की, जिनमें मैं भी शामिल हूं और इसलिए इस अजीब कश्मकश को शिद्दत से महसूस करता हूं। इस पर थोड़ा सोचने के बाद कुछ दिलचस्प बातें सामने आईं हैं। मुमकिन है इन्हीं बातों में 'अपने शहरों' से हमारी दूरियों का फ़लसफ़ा छुपा हो।

शहर ज़िन्दा होते हैं अपने अड्डों से। अड्डे, जिनसे यादें जुड़ी होती हैं, वहां जमने वालों की। अड्डे जो मिलकर शहर को उसकी शक्ल मुहैया कराते हैं, जो उसे एक ऐसे किरदार में बदल देते हैं जिससे दूरियां बहुत तड़पाती हैं। आपने कभी यार-दोस्तों के साथ खाते-पीते इस तरह के जुमले ख़ूब सुने होंगे- 'यार, चाय तो फलां जगह की होती थी, ये भी कोई चाय है' या फिर 'फलाने हलवाई की जलेबियों में गज़ब का स्वाद होता था' या 'कभी शहर जाना होता है तो दोस्तों की टोली यूनिवर्सिटी के पीछे वाले रेस्त्रां में ही मिलती है' या फिर 'याद है, मुहब्बत करने वाले अक्सर उसी पेड़ की छांव में ठंडक ढूंढ़ते थे। '
किसी शहर से लगाव पैदा करने में इस तरह की यादें बहुत अहम हो जाती हैं। अगर इस तरह की यादें नहीं हैं तो यकीन मानिए आपके लिए वो शहर सिर्फ़ एक नाम ही रहेगा या ज़्यादा से ज़्यादा वो जगह जहां आपकी शुरुआती शिक्षा हुई। अगर हमारे बुज़ुर्गों के पास ऐसी यादों की पूरी पोटली है तो हमसे एक पीढ़ी पहले के लोगों के पास मुट्ठी भर यादें तो हैं ही।

लेकिन हमारे पास क्या है?

ऐसा नहीं है कि हमारी पीढ़ी में अड्डेबाज़ी नहीं होती, ठीक-ठाक होती है। बस, अड्डे ऐसे हो गए हैं जो हर शहर में कमोबेश एक से हैं- एक दूसरे की फ़ोटोकॉपी। अब आप बरिस्ता, कैफ़े कॉफ़ी डे, मैकडोनाल्ड्स या पिज़्ज़ा हट जैसे नामों से तो अपने शहर को याद नहीं करेंगे न क्यूंकि जब आप अपने शहर को छोड़ आए हैं तो भी नए शहर में आपको ये सब मिलेंगे तो फिर वो ख़ास तो कहीं छूटा ही नहीं जो शहर को उस शिद्दत से याद दिलाए या कहिए कि दिल में दर्द पैदा कर दे कि वो भी क्या शहर था, वो भी क्या दिन थे। यानी हुआ ये कि आपके ट्रांसफ़र होते ही ये सारे अड्डे अपने पूरे रंग-ढंग के साथ ट्रांसफ़र हो गए। और फिर फ़ेसबुक, ऑरकुट और ट्विटर जैसे वर्चुअल अड्डे तो आपको शहर से लगाव पैदा करवाने से रहे।

तो बात यहां पर आकर ख़त्म हुई ठहरी कि जो हुआ सो हुआ, अगर अब अपने शहर जाना हो, तो उसे बिल्कुल नए नज़रिए से देखने की कोशिश करेंगे। जैसे टूरिस्ट देखता है- हर चीज़ को ख़ासी बारीकी और जिज्ञासा से। तब हमें ज़रूर कुछ ऐसी चीज़ें मिल जाएंगी जो हमें भी अपने शहर पर नाज़ करने, उसे याद करने का मौका देंगीं।

इस विश्लेषण में मुझे पूरी उम्मीद है कि कई जगह आप मुझसे इत्तेफ़ाक नहीं रखते होंगे और मुझे इस बात की भी पूरी उम्मीद है कि आप अपनी टिप्पणी के ज़रिए अपनी बात भी रखेंगे। हो सकता है आप इसी पीढ़ी के हों और अपने शहर को शिद्दत से याद करते हों। हम आसानी से इस विश्लेषण में जोड़-घटाव कर सकते हैं...लेकिन आपकी मदद से ही।

3 comments:

  1. वाह इस रूमानी सोच को -सच है शहर जब किरदार बने तभी जिन्दगी का असली रंग जमें ! बनारस की आडियों से हम जुड़ नहीं पाए -इसका आफसोस रहेगा !

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  2. सच मानो तो हर आदमी के दिल की तहों में ऐसे का अड्डे छिपे हुए है जिन्हें वो रोज याद करता है ....मुई जिंदगी ही ऐसी चीज .वक़्त प्रायरिटी बदल देता है.....ओर जिम्मेदारिया यूं आसमान से नीचे आकर गिरती है धम से .....

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  3. मैं नई पीढी की हूँ ..मुझे मेरे शहर से प्यार है :-)

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आपकी टिप्पणी से ये जानने में सहूलियत होगी कि जो लिखा गया वो कहां सही है और कहां ग़लत। इसी बहाने कोई नया फ़लसफ़ा, कोई नई बात निकल जाए तो क्या कहने !

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