Tuesday, December 1, 2009
एक किताब और एक फ़िल्म के बहाने इंसानी जज़्बात के हज़ार रंग
इंसानी जज़्बात तमाम चीज़ों से बेतरह प्रभावित होते रहते हैं। किताब के पन्ने और सिनेमा के पर्दे पर न जाने कितने एहसास, कितनी बार ख़ूब बारीकी से छिटकाए गए हैं।
लेकिन आज मैं आपसे उस किताब और फ़िल्म का ज़िक्र कर रहा हूं जिसने इन जज़्बातों को कुछ इस क़दर छुआ है कि वो भुलाए नहीं भूलते।
पहले किताब का ज़िक्र कर लेते हैं। किताब का नाम है- वाइज़ एण्ड अदरवाइज़ (Wise and Otherwise)। सुधा मूर्ति ने लिखा है इसे...नहीं, लिखा कहना ठीक नहीं होगा, ये किताब लिखी नहीं बुनी गई है हमारी इंसानियत और शैतानियत के तमाम धागों से। सुधा मूर्ति कई सालों से इंफ़ोसिस फ़ाउंडेशन चला रही हैं। इस दौरान हर तरह के लोगों से उनकी मुलाक़ात होती रहती है। निहायत ईमानदार,अच्छे लोग और बेहद ओछे भी यानी इंसानी जज़्बात का हर रंग क़रीब से देखने का मौक़ा मिला है उन्हें। और जब एक ऐसा व्यक्ति ये सब महसूस कर रहा हो जिसके अंदर एक लेखक भी रहता हो तो ज़ाहिर है वो दुनिया को इसे बताना भी चाहेगा। यही किया है सुधा मूर्ति ने इस किताब के ज़रिए। 51 ऐसे तजुर्बे जिन्हें पढ़ने के दौरान आप एक आत्म-परीक्षण के मोड में चले जाते हैं कि मैं इन सारे लोगों के बीच कहां खड़ा हूं। ये किताब आजकल नित नई आती तमाम 'मोटिवेशनल' किताबों पर भारी है क्यूंकि इसके अनुभव इसी ज़मीन से आम इंसानों से लिए गए हैं।
अब करते हैं फ़िल्म की बात। आसिफ़ कपाड़िया ब्रिटेन में बसे फ़िल्ममेकर हैं। वही जिन्होंने कई साल पहले 'वॉरियर' बनाई थी, इरफ़ान ख़ान को लेकर। जिस फ़िल्म का मैं ज़िक्र कर रहा हूं, वो बेहद ख़ूबसूरत, टुंड्रा इलाके में फ़िल्माई गई 'फ़ार नॉर्थ'
(Far North) है। माफ़ कीजिएगा, जिस तरह मैंने किताब का ज़िक्र किया, उस तरह इस फ़िल्म का नहीं कर पाऊंगा क्यूंकि जिस जज़्बात को ये फ़िल्म उभारती है, उसका ज़रा भी ज़िक्र करते ही फ़िल्म का मज़ा ख़राब हो जाएगा और हो सकता उसे देखते हुए आप समझ जाएं कि आगे क्या होगा।
हां, मैं इतना ज़रूर कह सकता हूं कि अगर आप इसे रात को देखेंगे तो नींद आने में थोड़ी तकलीफ़ ज़रूर होगी। ये फ़िल्म आपको झकझोर देती है क्यूंकि जो दिखाया गया है वो आप कभी सपने में भी नहीं सोच सकते थे।
हालांकि, मेरा मानना है कि हालात हमारे एहसासों को किस तरह बदलेंगे, आप कभी गारंटी नहीं ले सकते।
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फ़िल्म
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बहतु ही उपयुक्त जानकारी...मुझे हमेशा अच्छी किताबों और अच्छी फिल्मों की तलाश रहती है...शेयर करने का शुक्रिया...सुधा मूर्ति की कई किताबें पढ़ी हैं...पर ये नहीं पढ़ी,अभी तक...फिल्म की जरा सी झलक देकर तो आपने उत्सुकता और बढा दी है...जरूर देखने की कोशिश करुँगी
ReplyDeleteकोशिश करते हैं कि फिल्म देखें...
ReplyDeleteअरे वाह! बन्धु इस पोस्ट ने तो मुझे आपका प्रशंसक बना दिया!
ReplyDeleteमैं फिल्में नहीं देखता और मैं इतना बढ़िया भी नहीं लिख सकता! आपकी पोस्ट बहुत सुगढ़ है!
ज्ञानदत्तजी, हौसलाअफ़ज़ाई के लिए बेहद शुक्रिया। वैसे ये आपकी ग़लतफ़हमी है कि आप अच्छा नहीं लिखते। बाक़ी, फ़िल्में देखना शुरु करिए, तमाम अनुभवों से जुड़ेंगे। अगर बॉलीवुड में ख़ास दिलचस्पी न हो तो वर्ल्ड सिनेमा का रुख़ कर सकते हैं।
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ।
ReplyDeleteसुन्दर! ज्ञानजी के बारे में तुम्हारी राय सही है। लेकिन ज्ञानजी की कुछ तो बात मान लो कि तुमने अच्छा लिखा है।
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