Wednesday, July 29, 2009
मैं थक गया हूं, ज़हानत का ये नक़ाब ओढ़े-ओढ़े
मैं थक गया हूं
ज़हानत का ये नक़ाब ओढ़े-ओढ़े
करना कुछ चाहता हूं
करना कुछ पड़ता है
वरना लोग कहेंगे
देखो, कैसा जंगली है
लेकिन बहुत हुआ
मुझे अब परवाह नहीं किसी की
मैं सच कह रहा हूं
नोंच के फेंक दूंगा इसे
क्यूंकि
मैं थक गया हूं
ज़हानत का ये नक़ाब ओढ़े-ओढ़े
मैं सभरवाल के हत्यारों को
चौराहे पर लटकाना चाहता हूं
चाहता हूं हरेक नेता को
कुछ दिन के लिए सीमा पर भेजना
मैं विधानसभाओं और संसद में
कामकाज ठप करने वालों पर
लाइव कोड़े बरसाना चाहता हूं
मैं जागते हुए भी सोने का नाटक करने वालों को
उठाना चाहता हूं
मैं सच कह रहा हूं
मैं किसी भी पल ये कर सकता हूं
क्यूंकि
मैं थक गया हूं
ज़हानत का ये नक़ाब ओढ़े-ओढ़े
मैं मिलावटख़ोरों को
मिलावटी मौत से अपंग बनाना चाहता हूं
चाहता हूं नक़ली नोट बनाने वालों की
चमड़ी के सिक्के चलाना
मैं बलात्कारियों को
भूख़े शेर के पिंजरे में छोड़ना चाहता हूं
मैं सच कह रहा हूं
अब इन इच्छाओं को दबाऊंगा नहीं
क्यूंकि
मैं थक गया हूं
ज़हानत का ये नक़ाब ओढ़े-ओढ़े
मैं दंगा कराने वाले आक़ाओं के
अपनों के गले में जलते टायर डालना चाहता हूं
चाहता हूं आतंकवादियों के रिश्तेदारों को
उनकी आंखों के सामने छलनी करना
मैं माहौल में घुला ज़हर
सोखना चाहता हूं
मैं सच कह रहा हूं
मुझसे ये सब होके रहेगा
क्यूंकि
मैं थक गया हूं
ज़हानत का ये नक़ाब ओढ़े-ओढ़े
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बेहतर...
ReplyDeleteयही बेचैनी नये रास्ते तलाशती है...नये विकल्प...
शुक्रिया...
आशा है यह उद्विग्नता बनी रहेगी। वरना... बस पाश के शब्द बरबस याद आ जाते हैं:
ReplyDeleteसबसे खतरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना...