Tuesday, September 14, 2010

भोपाल लेक पर...उस रोज़



भोपाल लेक में डूबता सूरज
प्यारा लग रहा था उस रोज़
डूबते हुए लाल गोले के
कुछ छींटे तुम्हारे चेहरे पर आ पड़े थे उस रोज़
उस रोज़ तुमने लेक के पानी में
शायद तीन बार उंगलियों से मेरा नाम लिखा था
बोटिंग नहीं की थी हमने उस रोज़
मैने हाथ पकड़ा था तुम्हारा
तुमने घबरा कर हाथ छुड़ाया था उस रोज़
हंस कर कहा था- मैं कहीं भाग थोड़ी रही हूं
मैं भी हंसा था, कहा- ये हाथ ज़िंदगी भर नहीं छोड़ूंगा

वो कॉर्नर वाले रेस्ट्रां की लेक फेसिंग टेबल पर
हमने कॉफ़ी और सेंडविच का ऑर्डर दिया था
वेटर चौंक पड़ा था उस रोज़
जब तुमने बिल पे किया था
उसे क्या पता था कि हमारे दरमियां
फॉर्मेलिटी जैसा कुछ नहीं
बस प्यार है ढेर सारा
उसे शायद आदत नहीं थी ये देखने की
तुम कितना हंसी थीं, उसके चले जाने के बाद
लाल सूरज डूब चुका था अब तक
बस उसकी लालिमा ज़िंदा थी
तुम्हारे चेहरे पर उस रोज़

रेस्ट्रां से निकलते हुए
उस धुंधलके में तुम्हें दिखा था कैंडीफ्लॉस वाला
सड़क के उस पार खड़ा था वो उस रोज़
तुम्हारी पसंदीदा चीज़ों में से एक़
बस..तुम ज़िद्दी बच्चे की तरह
हाथ छुड़ा कर भागी थीं
और
और
ट्रक...टक्कर...ख़ून..शोर
मैं इस ओर सड़क पर ही
गिर पड़ा था
सन्नाटा पसर गया था मेरे कानों में उस रोज़
मैं माफ़ नहीं कर पाउंगा ख़ुद को कभी
मैंने हमेशा हाथ थामे रखने का वादा किया था
क्यूं तुम्हारा हाथ छोड़ दिया फिर
उस रोज़
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