Saturday, November 6, 2010
इन सर्दियों में नहीं रहा वो
नसों में बहता ख़ून जम रहा था आहिस्ता आहिस्ता
और थरथराते होठों से जब तब आधे अधूरे
कुछ लफ़्ज़ गिरते थे ज़मीं पर
छनाके के साथ टुकडा टुकड़ा हो जाते थे सब
हाथों ने हिलना बंद कर दिया था
हां, आंखों की पुतलियां ज़रुर
दांएं-बांए कभी चक्कर लगा आती थीं
लेकिन इन इशारों का कोई सिरा,
नहीं पकड़ पाया कोई
कि पकड़ पाता तो
ज़िंदगी का हर क़तरा बर्फ न बन पाता
कि पकड़ पाता तो
रगों में बहता ख़ून बहने लायक रहता
इन सर्दियों में नहीं रहा वो
कनॉट प्लेस के इनर सर्किल में
मोंटे कार्लो शोरुम के ठीक बग़ल में
पड़ा है जिस्म, कोई हलचल नहीं है
लगता है ठंड ने चलाई है दरांती रात भर
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