Tuesday, August 27, 2013
Saturday, August 24, 2013
...दिसंबर की उन सर्दियों में
उन तख़्तियों में, उन बैनरों में
उन चीख़ों में, उन आवाज़ों में
उन भिंची हुई मुट्ठियों
और जलती हुई आंखों में
लहू के क़तरे थे, उबाल थे
जज़्ब हुई कई टीसों के सवाल थे
तंत्र बदलना होगा, जब कहा था हमने
...दिसंबर की उन सर्दियों में
ढेर सारे वादे किए, क़समें लीं
खुद ब खुद एक लहर चली थी
नींद से जाग उठा था एक पूरा मुल्क
...दिसंबर की उन सर्दियों में
लेकिन तुम चली गईं
दर्असल, उस दिन तुम नहीं गई थीं
तुम जिंदा थीं उन हौसलों में
जिनको लंबी लड़ाई लड़नी थी
तुम ज़िंदा थीं उन फ़ैसलों में
जो क़ानून की शक्ल में नुमाया हुए
तुम कहीं भी नहीं गई थीं
...दिंसबर की उन सर्दियों में
कुछ बातें हुईं ठोस क़दम उठाने की
आधे हिंदुस्तान को महफ़ूज़ रखने के लिए
क़ानून के नाख़ून थोड़े और पैने किए गए
आहिस्ता-आहिस्ता आठ महीने बीत गए
लेकिन एक बार फिर पांच दरिंदों ने
एक और शहर पर दाग़ लगा दिया
जो मोमबत्तियां इंडिया गेट पर रोशन हुई थीं
वो अब गेटवे ऑफ़ इंडिया पर होंगी
कुछ भी तो नहीं बदला
वो सख़्त क़ानून और उसका ख़ौफ़ कहां था
क्या हुआ उन वादों का, जो किए थे हमने
...दिसंबर की उन सर्दियों में
हो सके तो हमें माफ़ कर देना
आधी आबादी को एक महफ़ूज़ मुल्क देना
बड़ा मुश्किल काम मालूम होता है
देश की हर मां से जो रूहानी रिश्ता जोड़ा था तुमने
माफ़ करना, उसकी लाज नहीं रख सके
हमारी नज़रें नीची हैं
कि शर्म के परदे में कमज़ोरी छिपती सी लगती है
इज़्ज़त और इंसानियत से भरी वादों की वो गठरी
लगता है वहीं छूट गई...इंडिया गेट पर
...दिसंबर की उन सर्दियों में
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