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बचपन में जब भी कुछ चुभता था
या कोई किसी बात पर डांटता था
कहां देर लगती थी आंख नम होते
जब कभी टूट जाता था ख़ुद का खिलौना
और भाई का साबुत खिलौना मुंह चिढ़ाता था
कहां देर लगती थी आंख नम होते
गियर वाली साइकिल मांगने पर
जब मिली थी दूसरों-सी साइकिल
कहां देर लगी थी आंख नम होते
याद है उस ग़लती पर डांट खाना
जो मैंने कभी की ही नहीं थी
तब भी कहां देर लगती थी आंख नम होते
जब पहली बार फांदी थी स्कूल की दीवार
और अपने ही दोस्त ने की थी शिकायत
कहां देर लगी थी आंख नम होते
थोड़ा बड़ा हुआ, दोस्तों के साथ फ़िल्में देखने लगा
जब भी परदे पर फूटती थी भावनाएं
कहां देर लगती थी आंख नम होते
जिसको दिलोजान से चाहा था
और दिलोजान ही जब बिखरे
कहां देर लगी थी आंख नम होते
बड़ा होकर पत्रकार बन गया हूं
बम विस्फोट के बाद एक अस्पताल में हूं
हर तरफ़ से आती घायलों की चीख़-पुकार के
मांस का लोथडा बन चुके शरीर के
ज़मीन पर बिखरे सुर्ख़ ख़ून के
'अच्छे शॉट्स' बनवा रहा हूं
ये सब देखता जा रहा हूं
और इंतज़ार कर रहा हूं आंख के नम होने का
लेकिन ये कम्बख़्त तो बड़ी शातिर निकली
आंसू की एक बूंद तक नहीं टपकाई
शायद इसे कहीं से ख़बर लग गई है कि
मैं प्रोफ़ेशनल हो गया हूं