Wednesday, September 17, 2008
मैं प्रोफ़ेशनल हो गया हूं !
बचपन में जब भी कुछ चुभता था
या कोई किसी बात पर डांटता था
कहां देर लगती थी आंख नम होते
जब कभी टूट जाता था ख़ुद का खिलौना
और भाई का साबुत खिलौना मुंह चिढ़ाता था
कहां देर लगती थी आंख नम होते
गियर वाली साइकिल मांगने पर
जब मिली थी दूसरों-सी साइकिल
कहां देर लगी थी आंख नम होते
याद है उस ग़लती पर डांट खाना
जो मैंने कभी की ही नहीं थी
तब भी कहां देर लगती थी आंख नम होते
जब पहली बार फांदी थी स्कूल की दीवार
और अपने ही दोस्त ने की थी शिकायत
कहां देर लगी थी आंख नम होते
थोड़ा बड़ा हुआ, दोस्तों के साथ फ़िल्में देखने लगा
जब भी परदे पर फूटती थी भावनाएं
कहां देर लगती थी आंख नम होते
जिसको दिलोजान से चाहा था
और दिलोजान ही जब बिखरे
कहां देर लगी थी आंख नम होते
बड़ा होकर पत्रकार बन गया हूं
बम विस्फोट के बाद एक अस्पताल में हूं
हर तरफ़ से आती घायलों की चीख़-पुकार के
मांस का लोथडा बन चुके शरीर के
ज़मीन पर बिखरे सुर्ख़ ख़ून के
'अच्छे शॉट्स' बनवा रहा हूं
ये सब देखता जा रहा हूं
और इंतज़ार कर रहा हूं आंख के नम होने का
लेकिन ये कम्बख़्त तो बड़ी शातिर निकली
आंसू की एक बूंद तक नहीं टपकाई
शायद इसे कहीं से ख़बर लग गई है कि
मैं प्रोफ़ेशनल हो गया हूं
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आप बडे़ हो गये हो...
ReplyDeleteबड़ा होकर पत्रकार बन गया हूं
ReplyDeleteबम विस्फोट के बाद एक अस्पताल में हूं
हर तरफ़ से आती घायलों की चीख़-पुकार के
मांस का लोथडा बन चुके शरीर के
ज़मीन पर बिखरे सुर्ख़ ख़ून के
'अच्छे शॉट्स' बनवा रहा हूं
yahi baura anubhaw haota hai patarkaar ka
वाकई आप प्रबुद्ध और बड़े हो गए हैं .
ReplyDeleteक्या करें अब ऐसी घटनाओं की लोगों को आदत सी होने लगी है .
सवेदनाये भी अब रिमोट की तरह हो गई है...एक sec में आँख नम तो दूसरे सेकेंड में ........
ReplyDeleteये सब देखता जा रहा हूं
ReplyDeleteऔर इंतज़ार कर रहा हूं आंख के नम होने का
लेकिन ये कम्बख़्त तो बड़ी शातिर निकली
आंसू की एक बूंद तक नहीं टपकाई
शायद इसे कहीं से ख़बर लग गई है कि
मैं प्रोफ़ेशनल हो गया हूं
बहुत ही अच्छी कविता। सामयिक तो है ही , हमें बहुत कुछ सोंचने को मजबूर कर देती है। सही है , कितने बेदर्द हो गए हें हम।
प्रबुद्ध काफ़ी बढ़िया...लेकिन पता नहीं क्यों मैं आज तक प्रोफ़ेशनल क्यों नहीं हो पाया हूं। घटनाओं को देखकर आज भी आंसू छलक आते हैं। फिर हंसी भी आती है, कि आख़िर ऐसा हुआ क्यों...बिहार में आई बाढ़ हो या फिर दिल्ली धमाकों के विजुअल्स, सबको उनके हिस्से की आंसू मैंने दी है। लोग कहते हैं कि कमजोर लोग आंसू बहाते हैं, मैं मानता हूं मैं मानता हूं...मुझमें "मैं" अभी बाकी है...देखता हूं कब तक यह बच पाता है। ख़ैर बेहतरीन आत्म व्याख्या....।
ReplyDeleteब्लास्ट के बाद तुझे ऑफ़िस में देखा था.. मालूम था कि 'इसी बहाने' कुछ ज़रुर लिखा जाएगा... हम सच में प्रोफ़ेशनल हो गए हैं... पर एक बात तो ज़रुर है.. कि अपने हर पोस्ट के साथ तू अपने नाम का मतलब साकार कर देता है...
ReplyDeleteआतंकवाद को खबर चाहिए और खबर को आतंकवाद। प्रबुद्ध को इन दोनों के बीच इस बात का ख्याल करना है कि दुख को देखकर दिल में दर्द जरुर हो आंसू आएं या ना आएं कोई बात नहीं। युद्ध में जब सैनिक को गोली लगती है तो उसके साथी की आंखे नम नहीं होती बल्कि वो ओर जोश से लड़ता है। और वैसे भी तेरी आंखे आंखे नम हो गयी तो उन हजारों आंखो के आंसू कौन पोंछेगा जिनके अपने बम विस्फोट में मारे जा रहे हैं ? उन नम आंखों के सवालों का जवाब कौन देगा जिनके प्रिय अस्पताल में हैं और उनको पता नहीं भी नहीं कि वो बचेंगे या जिदगीभर के लिए अपंग हो जाएंगे? नम आंखें रहेंगी तो कैसे देख पाएगा कि शिवराज पाटिल जैसे लोग कितनी ड्रेस बदल रहे हैं?
ReplyDelete"मैं प्रोफ़ेशनल हो गया हूं" हां अब इसीलिए अपना स्कूल टाइम के क्यूट से फोटो की जगह एक प्रोफेशनल लुक वाला फोटो ब्लॉग पर लगा ले।
भाई,
ReplyDeleteशानदार लिखा है। किसी सामयिक मसले पर कोई लेख लिखना तो फिर भी आसान है, लेकिन उसे छंदों में पिरो कर कविता की शक्ल देना... यकीनन मुश्किल है। आपने उसे बखूबी किया है। आपकी रचना दिल को छू गई। बहुद ही शानदार। मुबारकबाद।
tum sahi mai प्रोफ़ेशनल हो gye ho
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