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मज़ेदार बात ये है कि जिस तकनीक का डर अख़बारों को खाए जा रहा था, वही तकनीक अब उनके लिए वरदान बन गई है... रेवेन्यू का नया मॉडल, जो काग़ज़ के लिए हो रही पेड़ों की कटाई को भी कम करने में मददगार होगा। यानी अख़बारों को अलविदा कहने का वक़्त अभी नहीं आया और इस तरह शायद कभी आए भी न। तकनीक के जादू का फ़ायदा तो बहुत है...नुकसान है तो बस इतना कि किताबों के बहाने बनने वाले क़िस्से कुछ कम हो जाएंगे।
गुलज़ार ने यही सोच कर लिखा है ये:
ज़ुबान पर ज़ायक़ा आता था जो सफ़हे* पलटने का
अब उँगली ‘क्लिक’ करने से बस इक
झपकी गुज़रती है
बहुत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है परदे पर
किताबों से जो ज़ाती राब्ता* था, कट गया है
कभी सीने पर रखकर लेट जाते थे
कभी गोदी में लेते थे
कभी घुटनों को अपने रिहल* की सूरत बनाकर
नीम सजदे* में पढ़ा करते थे, छूते थे जबीं* से
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा बाद में भी
मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल
और महके हुए रुक़्के़*
किताबें मँगाने, गिरने उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे
उनका क्या होगा
वो शायद अब नही होंगे !!
सफ़हे- पन्ने, राब्ता- संबंध, रिहल- किताब रखने का लकड़ी का प्लेटफ़ॉर्म, नीम सजदा- थोड़ा झुक कर, जबीं- माथा, इल्म- ज्ञान, जानकारी, रुक़्क़े- काग़ज़ के टुकड़े, ख़त
bahut sundar... rishton ki parwah karne wale har yug me unhe bacha lete hain aur aage bhi bacha hi lenge ye ummed hai.
ReplyDeleteगोया एक वक़्त होगा के पहले इ न्यूज़ होगी.अगले दिन अखबार के पन्ने पे खबर होगी...
ReplyDeleteगुलज़ार साहब की रचना पढ़कर आनंद आ गया
ReplyDeleteसुंदर, आने वाले दिन तो खैर ई बुक के होंगे ही.
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