Thursday, March 4, 2010

अतिथि! तुम कब जाओगेः व्यंग्य शरद जोशी का, विज़न आश्विनी धीर का

कोई भूमिका बांधना नहीं चाहता, सिर्फ़ एक सूचना है। फ़िल्म अतिथि...शरद जोशी के लिखे व्यंग्य पर आधारित है। वो मिला तो लगा कि आपसे साझा कर लेना चाहिए। तो मज़ा लीजिए उनके पैने व्यंग्य और उसके बाद देखिए फ़िल्म...

---तुम्हारे आने के चौथे दिन, बार-बार यह प्रश्न मेरे मन में उमड़ रहा है, तुम कब जाओगे अतिथि ! तुम कब घर से निकलोगे मेरे मेहमान !

तुम जिस सोफ़े पर टांगें पसारे बैठे हो, उसके ठीक सामने एक कैलेन्डर लगा है जिसकी फड़फड़ाती तारीख़ें मैं तुम्हें रोज़ दिखा कर बदल रहा हूं। यह मेहमाननवाज़ी का चौथा दिन है, मगर तुम्हारे जाने की कोई संभावना नज़र नहीं आती। लाखों मील लंबी यात्रा कर एस्ट्रॉनॉट्स भी चांद पर इतने नहीं रुके जितने तुम रुके। उन्होने भी चांद की इतनी मिट्टी नहीं खोदी जितनी तुम मेरी खोद चुके हो। क्या तुम्हें अपना घर याद नहीं आता? क्या तुम्हें तु्म्हारी मिट्टी नहीं पुकारती?
जिस दिन तुम आए थे, कहीं अंदर ही अंदर मेरा बटुआ कांप उठा था। फिर भी मैं मुस्कुराता हुआ उठा और तु्म्हारे गले मिला। मेरी पत्नी ने तुम्हें सादर नमस्ते की। तुम्हारी शान मे ओ मेहमान, हमने दोपहर के भोजन को लंच में बदला औऱ रात के खाने को डिनर में। हमने तु्म्हारे लिए सलाद कटवाया, रायता बनवाया और मिठाईयां मंगवाईं। इस उम्मीद में कि दूसरे दिन शानदार मेहमाननवाज़ी की छाप लिए तुम रेल के डिब्बे में बैठ जाओगे। मगर, आज चौथा दिन है और तुम यहीं हो। कल रात हमने खिचड़ी बनाई, फिर भी तुम यहीं हो। आज हम उपवास करेंगे और तुम यहीं हो। तुम्हारी उपस्थिति यूं रबर की तरह खिंचेगी, हमने कभी सोचा न था।

सुबह तुम आए और बोले , "लॉन्ड्री को कपड़े देने हैं।" मतलब? मतलब यह कि जब तक कपड़े धुल कर नहीं आएंगे, तुम नहीं जाओगे? यह चोट मार्मिक थी, यह आघात अप्रत्याशित था। मैंने पहली बार जाना कि अतिथि केवल देवता नहीं होता। वह मनुष्य और कई बार राक्षस भी हो सकता है। यह देख मेरी पत्नी की आंखें बड़ी-बड़ी हो गईं। तुम शायद नहीं जानते कि पत्नी की आंखें जब बड़ी-बड़ी होती हैं, मेरा दिल छोटा-छोटा होने लगता है।

कपड़े धुल कर आ गये औऱ तुम यहीं हो। पलंग की चादर दो बार बदली जा चुकी और तुम यहीं हो। अब इस कमरे के आकाश में ठहाकों के रंगीन गुब्बारे नहीं उड़ते। शब्दों का लेन-देन मिट गया। अब करने को को चर्चा नहीं रही। परिवार, बच्चे, नौकरी, राजनीति, रिश्तेदारी, पुराने दोस्त, फ़िल्म, साहित्य। यहां तक कि आंख मार-मार कर हमने पुरानी प्रेमिकाओं का भी ज़िक्र कर लिया। सारे विषय ख़त्म हो गये। तुम्हारे प्रति मेरी प्रेमभावना गाली में बदल रही है। में समझ नहीं पा रहा हूं कि तुम कौन सा फ़ेविकॉल लगा कर मेरे घर में आये हो ?

पत्नी पूछती है, "कब तक रहेंगे ये?" जवाब में मैं कंधे उचका देता हूं। जब वह प्रश्न पूछती है, मैं उत्तर नहीं दे पाता। जब मैं पूछता हूं, वो चुप रह जाती है। तुम्हारा बिस्तर कब गोल होगा अतिथि ?

मैं जानता हूं कि तुम्हें मेरे घर में अच्छा लग रहा है। सबको दूसरों के घर में अच्छा लगता है। यदि लोगों का बस चलता तो वे किसी और के घर में रहते। किसी दूसरे की पत्नी से विवाह करते। मगर घर को सुन्दर और होम को स्वीट होम इसीलिए कहा गया है कि मेहमान अपने घर वापिस लौट जाएं।

मेरी रातों को अपने खर्राटों से गुंजाने के बाद अब चले जाओ मेरे दोस्त ! देखा, शराफ़त की भी एक सीमा होती है और गेट आउट भी एक वाक्य है जो बोला जा सकता है।

कल का सूरज तुम्हारे आगमन का चौथा सूरज होगा। औऱ वह मेरी सहनशीलता की अंतिम सुबह होगी। उसके बाद मैं लड़खड़ा जाऊंगा। यह सच है कि अतिथि होने के नाते तुम देवता हो, मगर मैं भी आख़िर मनुष्य हूं। एक मनुष्य ज़्यादा दिनों देवता के साथ नहीं रह सकता। देवता का काम है कि वह दर्शन दे और लौट जाए। तुम लौट जाओ अतिथि। इसके पूर्व कि मैं अपनी वाली पर उतरूं, तुम लौट जाओ।

उफ़ ! तुम कब जाओगे, अतिथि !

2 comments:

  1. आभार इस प्रस्तुति का.

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  2. हा हा हा ...यह सच है की अतिथि देवता का स्वरुप है, किन्तु महंगाई के इस ज़माने में आतिथ्य में ये वेदनाए भी वाजिब है .....बढ़िया पोस्ट धन्यवाद !!

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