Saturday, June 26, 2010

आइए...ख़ुद को तैयार करें कई और भोपाल त्रासदियों के लिए

साल-2018...जगह-लखनऊ से 58 किलोमीटर दूर हसनपुर में अमेरिकन न्युक्लियर पावर प्लांट। एक तेज़ धमाका। फिर कुछ और धमाके। उसके बाद क्या, कहां, कैसे, क्यूं जैसे कुछ बेमानी से सवाल...अमेरिकन कंपनी पर 500 करोड़ का जुर्माना। और हां, 40 हज़ार इंसानी मौतें और खरबों की संपत्ति मिट्टी के हवाले। लेकिन, इस बारे में बात करने का कोई फ़ायदा नहीं क्यूंकि इस जान-माल के बदले मिल तो गया 500 करोड़। और क्या चाहते हैं। न्यूक्लियर लायबिलिटी बिल में यही तय हुआ था न।
साल-2010...भोपाल गैस त्रासदी के उससे भी ज़्यादा त्रासदी भरे फ़ैसले ने एक शहर के घावों को तो नहीं भरा लेकिन एक बेहद ज़रूरी बहस छेड़ने में ज़रूर मदद की है। ये बहस है न्यूक्लियर लायबलिटी बिल की। लायबलिटी..हिंदी में ज़िम्मेदारी। बिल के मसौदे में ज़िम्मेदारी शब्द की जो बखिया उधेड़ी गई है उससे क्यूं न इसे न्यूक्लियर नॉन लायबलिटी बिल कहा जाए। बिल के मुताबिक़ किसी भी हादसे की सूरत में, फिर चाहे वो कितना भी बड़ा क्यूं न हो...हर्जाने की रक़म 2200 करोड़ से ज़्यादा नहीं होगी यानि क़रीब 500 मिलियन डॉलर, जिसमें से विदेशी कंपनी 500 करोड़ से ज़्यादा नहीं देगी बाक़ी मुआवज़ा भारत सरकार को देना होगा। देश के अंदर क्लेम कमिश्नर बनेंगे, मामला वही देखेंगे, सिविल कोर्ट में मुक़दमा नहीं चलेगा। कोई आपराधिक कार्रवाई नहीं। मंज़ूर हो तो बोलो वर्ना हमें और भी काम है-इस किस्म के तेवर। सरकार मंज़ूरी देना भी चाहती है। राजनीतिक हलकों से विरोध के कोई ख़ास स्वर भी नहीं उठ रहे। ऐसे में मुमकिन है बिल पास भी हो जाए। और, फिर ख़ुदा न करे, कभी एक और भोपाल कहीं हुआ तो वो कई भोपालों के बराबर होगा। रिसते हुए ज़ख़्मों का तब न कोई इलाज होगा न ही नीयत। क्यूंकि ऐसे सभी हालातों के बारे में तथाकथित ज़िम्मेदारियां पहले ही तय की जा चुकी होंगीं।
भोपाल के लिए ज़िम्मेदार यूनियन कार्बाइड को इसी 20 मई को अमेरिकी अदालत के एक फ़ैसले के मुताबिक़ कंपनी के बनाए गए एस्बेस्टस से एक कर्मचारी को कैंसर हो गया और वो 14 मिलियन डॉलर के मुआवज़े का हक़दार है। भोपाल के हर्जाने के तौर पर दिए गए 470 मिलियन डॉलर को अगर अब तक 5 लाख से ज़्यादा लोगों से विभाजित किया जाए तो ये पैसा बैठता है 800 डॉलर। यानि एक अमेरिकन जान की क़ीमत भारतीय की जान से 17000 गुना है।
अब ज़रा हाल ही में गल्फ़ ऑफ़ मैक्सिको में हुए ऑयल स्पिल को देखिए। इस हादसे के लिए ज़िम्मेदार ब्रिटिश पेट्रोलियम यानि बीपी को 2 बिलियन डॉलर तो सिर्फ़ पर्यावरण को हुए नुकसान की भरपाई के लिए देने होंगे। फिर बीपी को पूरी दुनिया मे विलेन के तौर पर पेश करने में ख़ुद राष्ट्रपति बराक ओबामा आगे आ रहे हैं। सैकड़ों मिलियन डॉलर तटीय इलाक़ों में रह रहे लोगों को बांट भी दिए गए हैं। ये सब वहां जहां एक भी इंसानी जान नहीं गई है।
चलते-चलते, वॉरेन एंडरसन की वो बात जो हमें एक देश के तौर पर हमारी औकात बता देती है- "House arrest or no house arrest or bail or no bail, I am free to go home...There is a law of the US...India bye bye,thank you" Anderson on Dec, 7, 84.

Wednesday, June 9, 2010

पाठ संख्या-6 भारत एक क्रिकेट प्रधान देश है !

बचपन की स्कूली पढ़ाई ने यूं तो कई तरह से बेवकूफ़ बनाया लेकिन एक बात जो भुलाए नहीं भूलती वो है हर क्लास में न जाने किन किन किताबों के किन किन पन्नों पर चस्पा- भारत एक कृषि प्रधान देश है बचपन में इम्तेहान की कई कॉपियों पर कई निबंधों की शुरुआत भी इसी तरह की होगी, ऐसी मुझे पूरी उम्मीद है। वो तो बड़े होकर जब विदर्भ के किसानों और पूरे देश में कई स्तरों पर फैली भुखमरी की तस्वीर से रु-ब-रु हुआ तो पता लगा कि भइया अपन को तो बचपन में जमके बेवकूफ़ बनाया गया।
तो अब सवाल ये कि अगर भारत कृषि प्रधान नहीं तो क्या प्रधान है। भारत में तीन धर्मों के बारे में बात की जाती है- राजनीति, बॉलीवुड और क्रिकेट। लेकिन इनमें भी सबसे ज़्यादा अनुयायी क्रिकेट के हैं। जब खेल में खेल और राजनीति दोनों के मज़े मिल रहे हों तो क्यूं न कोई इस धर्म को अपनाए। बचा, बॉलीवुड तो वो तो बेचारा इतना डरता है इस क्रिकेटिया बुख़ार से कि आईपीएल के दौरान नई फ़िल्में तक रिलीज़ नहीं कीं। तो साहब नतीजा ये है कि भारत एक क्रिकेट प्रधान देश है। शरद पवार नामक एक शख़्स भी कभी इसी स्कूली पढ़ाई के सताए हुए होंगे लेकिन जल्द संभल गए और उस पुराने जुमले को भूल कर नए को आत्मसात कर लिया। सो, क्रिकेट में उनका निवेश जारी है। जानते हैं, खेती की फ़सल तो कभी भी धोखा दे सकती है, लेकिन क्रिकेट की फ़सल में बस एक बार बीज डालो बाक़ी न खाद की फ़िक्र न कीटनाशकों की...खेत सोना उगलेगा।
कृषि मंत्री शायद इस बात को बख़ूबी जानते हैं कि देश उन्हें क्रिकेट मंत्री के तौर पर ज़्यादा देखता है। तभी तो वो हर वक़्त क्रिकेट से जुड़ी अपनी ज़िम्मेदारियां पूरी करते नज़र आते रहते हैं। और रहा सवाल आम देशवासियों के लिए प्रधानता का तो वो आप भारतीय टीम के मैच वाले दिन किसी भी नुक्कड़, पान की दुकान, टीवी शोरुम जैसी जगह के बाहर का नज़ारा देख कर समझ सकते हैं। अपने यहां, 50-60 करोड़ कोच तो हैं ही जो हमेशा सटीक तरह से बता सकते हैं कि फलाना बैट्समैन इस या उस ग़लती की वजह से आउट हो गया...उसे फलाने तरीक़े से शॉट खेलना चाहिए था। फिर मैच हारने पर पुतले जलाना...जीतने पर मंगल ग्रह पर तिरंगा फहराने वालों की तरह का भव्य स्वागत...ये सब उसी प्रधानता का सबूत है।
अब जल्द से जल्द कपिल सिब्बल को इस लेख का संज्ञान लेते हुए सभी बोर्ड्स को दिशा निर्देश जारी कर देने चाहिए किताबों में बदलाव के। हर किताब में साफ़ साफ़ लिखा हो- एक ज़माना था जब भारत एक कृषि प्रधान देश हुआ करता था, अब भारत एक क्रिकेट प्रधान देश है। Once upon a time, India used to be a farming nation, now its a Cricket Charming nation.
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