Monday, September 19, 2011

सस्ते आलसी शेर


और अब वादे के मुताबिक तीन वाहियात, सस्ते आलसी शेर:

1.ख़्वाहिशों की चादर ओढ़े सो रहा हूं कब से
    कमबख़्त नींद टूटे तो उन पर काम शुरु हो

2. अंगड़ाइयों से नींद खुलती नहीं मेरी
   बड़ी आलसी हैं अंगड़ाइयां मेरी

 3. मैं ठहरा कीबोर्ड का सिपाही
    बस ये एफ 5 दबाए काफी वक्त हुआ

राहुल द्रविड़ होने के मायने



इधर, बीते कुछ दिनों में मैंने तमाम अख़बार छान मारे, इस उम्मीद में कि राहुल द्रविड़ के वनडे संन्यास पर काफी कुछ बेहतरीन लिखा गया होगा। लेकिन मिला नहीं कुछ...सिवा एक ख़बर के तौर पर द्रविड़ की विदाई के। हां, एमजे अकबर का संडे गार्जियन में छपा लेख ज़रूर अपवाद रहा...वाकई एक उम्दा लेख। असल में, मैं ज़्यादा की उम्मीद लगा बैठा था। राहुल द्रविड़ का तो पूरा करियर ही ऐसा रहा है।

करीब आठ साल होने को आए....क्रिकेट से भागे हुए। पता नहीं क्यों, अब ये खेल सुहाता नहीं। लेकिन, क्रिकेट से अलगाव के इस दौर में भी मेरी दिलचस्पी इसमें रही कि द्रविड़ क्या कर रहे हैं। टीम का वो खिलाड़ी जो टीम मैन होने के मायने इतने ऊंचे कर देता है कि आप उसका कोई जोड़ ढूंढ़ नहीं पाते। वो खिलाड़ी जिसके लिए खेल एक इबादत की तरह है...खुदा को पा लेने की तरक़ीब है शायद। वो खिलाड़ी जिसे न जाने कितनी बार खुद को साबित करने के लिए कहा गया और उसने किया...बिना किसी शिकायत के..बिना बोले..चुपचाप। वो खिलाड़ी भी जिसके बारे में कहा जाता है कि किसी भी टूर पर उसका किट बैग सबसे भारी होता है...दसियों किताबें जो होती हैं उसमें।
कई क्रिकेट पंडित कहते हैं, ये राहुल द्रविड़ की बदकिस्मती है कि वो सचिन के दौर में पैदा हुए। पूरी विनम्रता के साथ मैं इन पंडितों की राय से इत्तेफ़ाक़ नहीं रखता। दरअसल, द्रविड़ की बदकिस्मती ये है कि वो उस दौर में खेल रहे हैं जब मीडिया के थालों में अगरबत्तियां महक रही हैं...जीहां, किसी को देवता बना देने की, पूजने की आदत बढ़ी है। सो, जब सचिन देवता हो गए तो बाक़ी लोगों को उनका 'ड्यू' नहीं मिल पाया। ऐसी सीरीज़ में भी जब वो सचिन से कहीं बेहतर खेले।

दीवार, मिस्टर कूल, मिस्टर डिपेंडेबल जैसे नाम तो दिए गए द्रविड़ को। लेकिन वो नहीं मिला जिसके वो हक़दार हैं। आप कैसे नज़रअंदाज़ कर सकते हैं एक ऐसे खिलाड़ी को जिसने टीम के लिए विकेटकीपिंग की...जब ज़रूरत हुई ओपन किया, जब ज़रूरत पड़ी नंबर 5 और 6 पर खेले। और हर भूमिका में अपना सर्वश्रेष्ठ दिया।
मुझे याद आता है वो वक्त जब द्रविड़ को वनडे का खिलाड़ी मानने से ही इनकार कर दिया गया था। कैसा तो रोने रोने जैसा होता था मन तब। लेकिन, हर महान खिलाड़ी की तरह वो वापस लौटे और देखते देखते टीम की रीढ़ बन गए।
और जब आज वो वनडे से जा रहे हैं तो अख़बारों से काट कर संभालने लायक एक भी लेख नहीं ढूंढ़ पाना अटपटा नहीं है। ये दरअस्ल, उसी चरण वंदना का हिस्सा है जहां कुछ नायकों को दूर की दुआ सलाम देकर ही विदा कर देने का रिवाज है। वो वन डे से जा रहे हैं 69 रनों की शानदार पारी के साथ...अब तैयार रहिए टैस्ट में कई और यादगार पारियां देखने के लिए।

राहुल द्रविड़, तुम महान हो !
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