Monday, November 12, 2007

मंज़िल



ख़्वाबों की सतरंगी ज़मीन पर
बुना था उसने ताना बाना
बेहद मुश्किल लगभग असंभव
लगा था उसके हाथ
मंज़िलों का एक ख़ज़ाना

अपना साजो-सामां बटोर
वो चल दिया अनजाने छोर
कितने गांव कितने नगर
कितनी पगडंडिया कितनी डगर
तय करता रहा वो अपना सफ़र
इंद्रधनुष के सातो रंग
उसके जीवन के साथी थे
काली स्याह रातों के
दीया और बाती थे

कौन जाने कहां थी मंज़िल
कहां मिले कौन सी मुश्किल
चलते चलते जब थक गया
कुछ पल को रुक गया वो
थोड़ा सुस्ता के फिर चला

भीड़ भरे रास्ते थे
मुश्किलें थीं हर मोड़ पर
लेकिन फ़िक्र उसे मंज़िल की थी
रास्तों से न था गिला

मेहनत उसकी रंग लाई
मंज़िल अपने संग लाई
लेकिन ये क्या
उसकी मंज़िल पर पहले से थे कुछ लोग जमा
जो उस पर करते थे दावा अपना अपना

वो तो मानो टूट गया
और तभी
आँखों से निकली दो बूंदों ने उसे जगाया
मत बहायो ये आँसू वो ख़्वाब था समझाया
बेहद ख़ुश हुआ कि हारा नहीं है वो

लेकिन उसने अब ये जान लिया था
मन ही मन ये ठान लिया था
के उसे पानी ही होगी हर एक मंज़िल
करना होगा हर लक्ष्य हासिल
वो जान गया कि कुछ पल सुस्ताना
मतलब सफ़र में पिछड़ जाना

उसे बेहद अच्छी सीख मिली थी
के मंज़िल पानी हो अगर
तो चलो
बिना थके बिना रुके हर डगर

4 comments:

  1. ख़्वाबों की सतरंगी ज़मीन पर
    बुना था उसने ताना बाना
    बेहद मुश्किल लगभग असंभव
    लगा था उसके हाथ
    मंज़िलों का एक ख़ज़ाना

    ये बात समझ नहीं आई कि अगर कविता की शुरुआत में ही "उसे" मंज़िलों का खज़ाना हाथ लग गया तो फ़िर पूरी कविता किस बात की?? थोड़ा विरोधाभास लगा कविता में....

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  2. मीतू, ख़ज़ाना नज़र आने और उसकी चाभी होने में जो फ़र्क है शायद वही फ़र्क मंज़िल दिखने और उसके लिए रास्ता तय करने में है. वैसे ख़्वाब में कुछ तो liberties लेने दो बेचारे को!

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  3. इंतहा हो गई इंतज़ार की.....रोज़-रोज़ तुम्हारे घर आता हूं।

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आपकी टिप्पणी से ये जानने में सहूलियत होगी कि जो लिखा गया वो कहां सही है और कहां ग़लत। इसी बहाने कोई नया फ़लसफ़ा, कोई नई बात निकल जाए तो क्या कहने !

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