Saturday, October 18, 2008

मैं हूं



मिलना चाहते हो मुझसे
मिलो
मैं हूं
एक ग़रीब लड़की
देखो मुझे
ऐसे क्या देखते हो
घृणा से नहीं थोड़ा प्यार से देखो
मेरे इन मैले कपड़ों को नहीं
इन नंगे पांवों को नहीं

अगर वाक़ई देखना चाहते हो तो
इन आंखों को देखो
इस वक़्त खुश चेहरे को देखो
क्या आंखों में कोई डर देखा
या कि चेहरे पे दर्द की कोई रेखा

नहीं
तुमने ज़रूर देखी होगी
उम्मीद की एक किरण
क्योंकि मैं हूं
एक गीत
बोलो गाओगे मुझे
संभावनाओं का पुलिंदा
अपनाओगे मुझे
फिर?

आओ मिलो मेरे परिवार से
वो खाट पे लेटा शराबी बाप
ये बीमार मां
और मेरे दो भाई तीन बहनें

मुझे नहीं चाहिए
सहानुभूति तुम्हारी
क्योंकि मुझे पता है
मैं हूं
पेट पालने लायक
आठ जनों का
मैं हूं ख़त्म करने के क़ाबिल
सिलसिला ये उलझनों का

बस यही है मेरी कहानी
बोलो
छापोगे कहीं लिखकर
मैं हूं

2 comments:

  1. काफी अच्छा है प्रबुद्ध.... कड़वी सच्चाई है इसमें लिखते रहो...

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  2. टीआरपी मिले तो जरूर ये कहानी जरूर दिखेगी...(टीवी वालों के लिए)...अखबार में छप जाए तो अच्छा है....

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आपकी टिप्पणी से ये जानने में सहूलियत होगी कि जो लिखा गया वो कहां सही है और कहां ग़लत। इसी बहाने कोई नया फ़लसफ़ा, कोई नई बात निकल जाए तो क्या कहने !

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