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हां-हां, कहावतें जानते हैं हम भी
हां-हां, रवायतें जानते हैं हम भी
जानते हैं तौर-तरीक़े भी
पर क्या चिपके रहें इन्हीं से हमेशा
होते होंगे पहले हमाम
पर वो हमारा क्या मुक़ाबला करेंगे
हमाम- नाम ही इतना डाउनमार्केट है
अपना तो भैया स्पा है
आधुनिक और सुविधा संपन्न
इसमें डलती हैं नोटों की गड्डियां
और ख़ास सचमारक लोशन
हां, एक बराबरी है हमाम और हमारे स्पा में
हम सब भी नंगे खड़े हैं इसमें
हम हैं ख़बरों की दुनिया के नंगे पुरोधा
अब सुनो हम नंगों का समवेत स्वर
हमारे अख़बारों और चैनलों की
कुछ ख़बरें काल्पनिक हैं
इनका सच्चाई से कोई भी वास्ता
महज़ संयोग है
हमेशा हम पूछते हैं न
ऐसे हालात में कोई हमसे भी तो पूछे
'कैसा लग रहा है' हमें?
सच सुनेंगे
बहुत बुरा लग रहा है
शर्म भी आती है
दरअस्ल ये सब बाज़ार का दबाव करवा रहा है
ग़ालिब से माफ़ी के साथ कहें तो
"हमें तो बाज़ार ने बेईमान बना दिया
वर्ना अख़बार तो हम भी थे सच्चाई वाले"
क्या सोचने लगे
मान ली न हमारी मजबूरी
रहम भी आ रहा होगा हम पर
थोड़ा-थोड़ा
हा हा हा हा हा हा
फंस गए न आप भी
हम ठहरे शब्दों के जादूगर
बरसों से बेच रहे हैं इसी तरह
करतूतों को अपनी
मजबूरी के मज़बूत खोल में लपेटकर
*ये कविता आउटलुक-अंग्रेज़ी के ताज़ा अंक ( For Sale- Journalism) से प्रेरित है।