Thursday, January 14, 2010

गुलज़ार करेले की सब्ज़ी हैं, यार !


एक तरफ़ जावेद अख़्तर हैं तो दूसरी ओर गुलज़ार। दोनों ही बेहतरीन गीतकार। एक जो लड़कपन में आप ही के अरमानों को लफ़्ज़ दे रहा था तो दूसरा जिसका लिखा सुनने में तो अच्छा लगता था पर ज़्यादा समझ नहीं आ पाता था। इसलिए लड़कपन में जावेद अख़्तर से ज़्यादा दोस्ती हुई। 'कत्थई आंखों वाली इक लड़की' उस गोरी,चटखोरी पे भारी पड़ती थी जो कटोरी से खिलाती थी। पर हां, साउन्ड्स तो उस समय भी समझ आते थे, मेरा मतलब गाने के संगीत से अलग सिर्फ़ शब्दों के अपने साउन्ड, जैसे- छैंया, छैंया, चप्पा चप्पा चरखा या फिर छैया छप्पा छई। पर उसके बाद के शब्दों की रेलगाड़ी दिमाग़ के बहुत कम स्टेशनों पर दस्तक दे पाती थी।

उस लड़कपन से जवानी की कारी बदरी तक लंबा वक़्त बीत चला है और इस दौरान कब गुलज़ार ज़ेहन मे जावेद अख़्तर की जगह हावी होते गए पता ही नहीं चला। ठीक उस अच्छे बच्चे की तरह जो बचपन में सारी सब्ज़ी-तरकारी खाता है सिवाय करेले की सब्ज़ी के क्यूंकि शायद उसकी ज़ुबान तक तक उस बेहतरीन ज़ायक़े को पकड़ने में नाकाम रहती है। बड़े होने पर वही करेला ख़ूब सुहाता है।
तो गुलज़ार से अपनी दोस्ती भी कुछ इसी क़िस्म की रही। शब्द, कानों से गुज़रने के बाद दिमाग़ के सही ठिकानों पर टकराते गए और होठों पर कभी मुस्कान तो कभी चेहरे की उदासी में बदलते गए। वो गोरे रंग के बदले श्याम रंग दई दे के बार्टर सिस्टम की परतें एकदम खुलने लगीं, नायिका का कुछ सामान क्यूं नायक के पास पड़ा है समझ आने लगा, उसकी हंसी से फसल पका करती थी...कैसे...जानने की ज़रूरत नहीं रह गई, गोरे बदन पे उंगली से नाम अदा लिखने के मायने और पीपल के पेड़ के घने साये में गिलहरी के झूठे मटर खाने की इमेजरी दिल की धड़कन को बेतरह तेज़ कर गई।

और इन दिनों वही गुलज़ार, 'दिल तो बच्चा है जी' के साथ उथल-पुथल मचाए हुए हैं। एक ऐसा गाना जिसमें मुकेश, राजकपूर, 'दसविदानिया' का गिटार, 60 के दशक का ऑरकेस्ट्रा अरेंजमेंट, टैप डांस, राहत की मासूमियत सब गड्ड-मड्ड होने लगते हैं। लेकिन, ख़ुशकिस्मती से ये सब लफ़्ज़ों की उस लड़ी में गुंथे हैं जहां इनकी ख़ुशबू ख़त्म नहीं होती। बल्कि हर बार सुनने में कोई नया ही रंग नुमाया होता है। राहत ने बख़ूबी गाया है इसे।
ज़रा ध्यान से सुनिएगा, गाने में पहली बार जब राहत ने 'बच्चा' बोला है, क्यूंकि बाक़ी के गाने में 'बच्चे' की साउंड, सपाट मिलेगी ऐसी अल्हड़ नहीं।
ये गुलज़ार ही हैं जो दिल को कमीना कहने के बाद भी उसकी मासूमियत बरक़रार रख पाते हैं।

ऐसा नहीं है कि जावेद अख़्तर अच्छे गीतकार नहीं है, लेकिन गुलज़ार...उनकी लीग ही अलग है।

(ये पोस्ट 'दिल तो बच्चा है जी' को रिपीट मोड में प्ले कर लिखी गई है ;-)

6 comments:

  1. आपने जिस अंदाज़ से इस पोस्ट को लिखा है उस से ये पोस्ट यादगार बन गयी है...शब्दों के प्रयोग इतने नए और रोचक हैं की बार बार पढने को जी करता है...गुलज़ार को करेला बता कर सच दिल लूट लिया आपने...गुलज़ार जहाँ बिम्बों के माध्यम से अपनी बात कहते हैं..."साफ़ छुपते भी नहीं सामने आते भी नहीं" के अंदाज़ में वहीँ जावेद अपनी बात सीधे सरल तरीके से आपतक पहुंचाते हैं...दिल तो बच्चा है जी...गज़ब का गीत है...बार बार सुनने लायक...
    नीरज

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  2. बहुत ही सरल और सटीक तरीक़े से आपने समीक्षा की है।

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  3. हम तो उनके बड़े पंखे है जी....एवन उनका रेखा वाला गया गाना अभी दो दिन पहले फेस बुक पे पोस्ट किया था

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  4. गुलज़ार की तो हर बात निराली!!!!!!!!!!बस यही मन कर चलते हैं हम!!

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  5. PJ.. what an amazing writing style!! absolutely wonderful.. n btw... i did notice d dasvidaniya feel in d song n also felt d innocence f a kid wen Rahat says 'bachha' for d frst tym... :)

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आपकी टिप्पणी से ये जानने में सहूलियत होगी कि जो लिखा गया वो कहां सही है और कहां ग़लत। इसी बहाने कोई नया फ़लसफ़ा, कोई नई बात निकल जाए तो क्या कहने !

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