अचानक कुछ शोर-गुल सुनकर
खिड़की खोल कर झांका बाहर
दृश्य देख चौंका ठिठका
कुछ घर आग के हवाले थे
अंधेरे घरों में उजाले थे
जो अंधेरे से भी काले थे
ये वो वक़्त था
जब आदमी आदमी से दूर था
माने दूरियों का दौर था
उठकर टीवी ऑन किया
कैमरा जो दिखा रहा था
वो देखने लायक नहीं था
पुलिस और प्रशासन
अक्सर मिलकर प्रयोग होने वाले शब्द
और साथ काम करने वाले लोग
पूरी तरह मुस्तैद थे
ऐसी ख़बर थी
शायद सच
दिन किसी तरह गुज़रा
अगले दिन का अख़बार
मेरे ख़याल से ख़ूब बिका होगा
क्यूंकि
मुखपृष्ठ पर थीं दो तस्वीरें
एक ज़िंदा जलाए गए युवक की धुंधली तस्वीर
और गिरफ़्तार लोगों की क्लोज़ अप तस्वीर
तस्वीरों के ऊपर ही ख़बर चस्पा थी
शहर में फिर दंगा भड़का
दो की मौत
शायद बिल्कुल ठीक
मज़हब और इंसानियत की मौत !